UNIT – 3 पाठ योजना
गद्य शिक्षण के
उद्देश्य -
गद्य-शिक्षण की
विधियाँ -
गीत प्रणाली
अभिनय प्रणाली
व्याख्या प्रणाली
खण्डान्वय प्रणाली
व्यास प्रणाली
तुलना प्रणाली
समीक्षा प्रणाली
रसास्वादन प्रणाली
कौन सी शिक्षण प्रणाली किस स्तर पर अपनाए
पद्य -शिक्षण के सोपान
प्रस्तावना
उद्देश्य कथन
पद्य में अभिरूचि जागृत करना
व्याकरण का अर्थ
व्याकरण की परिभाषा
व्याकरण की विशेषताएँ
व्याकरण शिक्षण की आवश्यकता
व्याकरण के प्रकार
शास्त्रीय या सैद्धांन्तिक व्याकरण
प्रासंगिक व्याकरण
व्याकरण की विभिन्न इकाईयों का अध्ययन
पाठ योजना का अर्थ - नियोजित शिक्षा की प्रक्रिया शिक्षक और विद्यार्थी
के बीच चलती है| इस प्रक्रिया की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षक को यह
पता हो कि उसे विद्यार्थियों को क्या सिखाने में सहायता करनी है और यह कार्य वह
कैसे करेगा और विद्यार्थियों को यह पता हो कि उन्हें क्या सीखना है और उसे सीखने
के लिए उन्हें क्या करना होगा विद्यार्थियों को किसी विषय वस्तु या कोई पाठ पढ़ाने
से पहले उसके शिक्षण निश्चित करना उन्हें लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निश्चित
करना और यह निश्चित करना कि किस तत्व को किन विधियों,प्रविधियां,युक्तियों एवं
शिक्षण उपकरणों की सहायता से स्पष्ट किया जाएगा | शिक्षक का क्या कार्य करेगा
विद्यार्थी क्या कार्य करेंगे शिक्षार्थियों की व्यक्तिगत सहायता किस प्रकार की जाएगी
और पाठ शिक्षा के प्रभाव का मापन एवं मूल्यांकन कैसे किया जाएगा इन सब का विवरण
पाठ योजना कहलाता है |
पाश्चात्य विद्वान वॉशिंग महोदय के
शब्दों
- पाठ योजना विवरण का नाम है जिससे यह स्पष्ट किया जाता है कि किसी पाठ को क्या
उपलब्धियां प्राप्त करनी हैं और उन्हें किन साधनों द्वारा कक्षा की क्रियाओं के
फलस्वरूप प्राप्त किया जा सकता है |
डा0 आर0जी0 कुशवाहा के अनुसार – पाठ योजना उस विषय वस्तु का नाम है
जिसमे विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास,कक्षा शिक्षण के समय किया जाता है |
ए.डीक्बी का मत है कि संपूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया में पाठ योजना सर्वाधिक फल दायक पक्ष है |
पाठ योजना विवरण का नाम है जिससे यह स्पष्ट किया जाता है कि
किसी पाठ के शिक्षण से किन लक्ष्यों को प्राप्त करना है और उन्हें किन विधियों,प्रविधियां,एवं
शिक्षण उपकरणों की सहायता से प्राप्त किया जाएगा और शिक्षक क्या कार्य करेगा एवं
पाठ शिक्षण के प्रभाव का मूल्यांकन किस प्रकार किया जाएगा यह पाठ योजना में पहले
से निर्धारित होता है |
पाठ योजना का महत्व - नियोजित शिक्षा का अर्थ है निश्चित
उद्देश्य शिक्षण में पाठ योजना का बड़ा महत्व है उसकी बड़ी आवश्यकता है पाठ योजना
से अग्रलिखित लाभ होते हैं -
Ø पाठ्यवस्तु एवं शिक्षण लक्ष्यों की
स्पष्टता
Ø उपयुक्त शिक्षण विधियों और साधनों का
चयन
Ø समय और शक्ति का सदुपयोग
Ø आत्मविश्वास का विकास
Ø शिक्षक तथा विद्यार्थियों के कार्यों का
निर्धारण
Ø विद्यार्थियों कि शंकाओं का समाधान संभव
Ø मूल्यांकन
पाठ्यवस्तु एवं शिक्षण लक्ष्यों की स्पष्टता पाठ योजना का
पहला पद है पाठ्य वस्तु विश्लेषण और शिक्षकों का निर्धारण इससे शिक्षक को दो लाभ
होते हैं एक तो उसे पाठ्यवस्तु का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है और दूसरा यह कि उसे पाठ
शिक्षण के लक्ष्य स्पष्ट हो जाते हैं
उपयुक्त शिक्षण विधियों और साधनों का चयन - पाठ योजना का
दूसरा पद होता है कि शिक्षण के लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयुक्त शिक्षण विधियों और
साधनों का चयन | इससे शिक्षक को यह लाभ होता है कि वह इन सबकी पूर्ण तैयारी करके
ही कक्षा में जाता है और कार्य निर्बाध गति से आगे बढ़ाता है |
समय और शक्ति का सदुपयोग - पाठ योजना
बनाने के बाद शिक्षक को भटकने की गुंजाइश नहीं रहती वह कक्षा में तार्किक क्रम से
आगे बढ़ता है और छात्रों की शंकाओं का समाधान प्रायः उन्हीं की सहायता से साथ-साथ
करता चलता है कम समय में अधिक कार्य होने की संभावना रहती है और समय की बचत होती
है |
आत्मविश्वास का विकास - जब शिक्षक
पाठ्य सामग्री का स्पष्ट ज्ञान कर लेता है एवं उस पाठ्य सामग्री को स्पष्ट करने की
विधियों पर विचार कर लेता है और आवश्यक कुछ शिक्षण उपकरणों के साथ कक्षा में
प्रवेश करता है तो उसे बड़ा आत्मविश्वास होता है उस स्थिति में कक्षा परिणाम उत्तम
होना स्वाभाविक है |
शिक्षक तथा विद्यार्थियों के कार्यों का निर्धारण - पाठ योजना बनाते
समय शिक्षक यह भी विचार करता है कि उसे क्या क्रिया करनी होंगी और विद्यार्थियों
को क्या क्रियाएं करनी होगी वह अपनी और विद्यार्थियों की क्रिया में तालमेल बैठाने
और संचालन करने की दिशा में भी विचार करता है इससे यह लाभ होता है की कक्षा में
शिक्षक और विद्यार्थी दोनों क्रियाशील रहते हैं और शिक्षक प्रभावशाली होता है |
विद्यार्थियों कि शंकाओं का समाधान संभव –जब शिक्षक पाठ की तैयारी करके जाता है और
उसके पास विकास की रूपरेखा होती है और उसमें आत्मविश्वास होता है तब वह कक्षा में
छात्रों की शंकाओं का समाधान सरलता से कर सकता है पाठ योजना का एक लाभ यह भी है
इसलिए भी उसकी आवश्यकता होती है |
मूल्यांकन - पाठ योजना में पाठ शिक्षण के प्रभाव का
मूल्यांकन करने का भी विधान होता है मूल्यांकन द्वारा शिक्षक एक ओर तो यह जानते
हैं कि उनके शिक्षा का क्या प्रभाव हुआ अर्थात विद्यार्थी कितना सीखे और कितना
नहीं और दूसरी ओर वे अपनी शिक्षण विधियों का मूल्यांकन करने में समर्थ होते हैं इस
मूल्यांकन से शिक्षक और विद्यार्थी दोनों को लाभ होता है शिक्षक अपनी क्रिया में
सुधार करते हैं और विद्यार्थी अपनी क्रिया में सुधार करते हैं |
पाठ योजना के आवश्यक तत्व
पाठ योजना बनाना
कोई सरल कार्य नहीं है उचित पाठ योजना का निर्माण करने के लिए शिक्षकों को
निम्नलिखित तथ्यों का स्पष्ट ज्ञान होना आवश्यक होता है इन्हें ही पाठ योजना के आवश्यकता
तत्व कहते है -
Ø
पाठ विषय का स्पष्ट ज्ञान
|
Ø विद्यार्थियों की
प्रकृति का ज्ञान |
Ø
शिक्षण लक्ष्यों को पहचान एवं उनका लेखन
|
Ø
विद्यार्थियों के पूर्व ज्ञान,कौशल,रुचि
एवं अभिवृत्ति का ज्ञान |
Ø
अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान |
पाठ विषय का स्पष्ट ज्ञान - शिक्षक को पाठ विषय
का विस्तृत एवं स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए इसके अभाव में वह पाठ्य वस्तु विश्लेषण नहीं
कर सकता और यह निश्चित नहीं कर सकता की पाठ्यवस्तु के किन तत्वों को स्पष्ट करना
है |
विद्यार्थियों की
प्रकृति का ज्ञान - किसी भी पाठ शिक्षण के लक्ष्य एवं उनको प्राप्त करने की
विधियां युक्तियों और साधन निश्चित करते समय हमें पाठ्य सामग्री के साथ साथ छात्रों
की प्रकृति को भी सामने रखना होता है विद्यार्थियों की प्रकृति का ज्ञान पाठ योजना
निर्माण के लिए उतना ही आवश्यक होता है जितना विषय वस्तु का ज्ञान |
शिक्षण लक्ष्यों
को पहचान एवं उनका लेखन – जब तक शिक्षक को यह स्पष्ट नहीं होता
कि उसे यथा पाठ के शिक्षण द्वारा किन लक्ष्यों को प्राप्त करना है तब तक वह शिक्षण
की उचित विधियां आदि का चयन नहीं कर सकता |अतः शिक्षण लक्ष्यों को पहचानना
और उनका लेखन पाठ योजना की पहली आवश्यकता है |
विद्यार्थियों के
पूर्व ज्ञान,कौशल,रुचि एवं अभिवृत्ति का ज्ञान - उत्तम शिक्षा
का अर्थ है विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान एवं अभिवृत्ति के आधार पर नए ज्ञान कौशल
रुचि एवं अभिवृत्ति का विकास करना | उत्तम पाठ योजना के निर्माण के लिए आवश्यक है
कि बच्चों के पूर्व ज्ञान से परिचत हो | विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान कौशल रुचि एवं
अभिवृत्ति के आधार पर ही संपूर्ण पाठ योजना तैयार की जाती है | यही पाठ योजना
निर्माण का आवश्यक तत्व है |
अन्य विषयों का
सामान्य ज्ञान ज्ञान पूर्ण इकाई होता है हम किसी भी
विषय को अब तक नहीं पढ़ा सकते जब तक हमें उस विषय से संबंधित अन्य विषयों का
सामान्य ज्ञान न हो | अतः उत्तम पाठ योजना बनाने के लिए शिक्षक को अन्य विषयों का सामान्य
ज्ञान होना चाहिए |
पाठ योजना की रूपरेखा
पाठ योजना निर्माण हेतु शिक्षक के समक्ष
निश्चित लक्ष्य रहता है तथा इसी आधार पर शिक्षक किसी कक्षा में विषय वस्तु को
प्रस्तुत कर सकता है पाजी योजना की रूपरेखा हरबर्ट स्पेंसर प्रणाली के आधार पर
निम्न प्रकार से तैयार की जा सकती है -
सामान्य सूचना -
इसमें पढ़ाये जाने वाले पाठ का
शीर्षक, कक्षा, कालास, विषय, प्रकरण, दिनांक, आदि को सामिल किया जाना चाहिए |जिस विद्यालय में
शिक्षण किया जाना है उस विद्यालय का नाम भी लिखा जाना चाहिए |
सामान्य उद्देश्य
-
सामान्य उद्देश्य लेखन प्रथम बिंदु के
आधार पर निर्धारित किया जाता है भिन्न-भिन्न भाषाओं के सामान्य उद्देश्य भिन्न
भिन्न होते हैं
विशिष्ट उद्देश्य
-
पाठ विशेष को पढ़ाने
में जिन उद्देश्यों की प्राप्ति होती है | वह लिखना चाहिए | विशिष्ट उद्देश्य
सामान्य उद्देश्यों पर आधारित होते हैं परन्तु उद्देश्य प्रकरण से संबंधित होता है
यह निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं -
ज्ञानात्मक
उद्देश्य
बोधात्मक उद्देश्य
प्रयोगात्मक
उद्देश्य
कौशलात्मक उद्देश्य
सहायक सामग्री -
पाठ पढ़ाने में
किस प्रकार की अधिगम सामग्री की आवश्यकता पड़ती है उसका उल्लेख करना
चाहिए | जैसे - चित्र, मॉडल,श्यामपट्ट इत्यादि |
पूर्व ज्ञान -
इसमें विद्यार्थी को जो ज्ञान पहले से ही
प्राप्त है उसी से सम्बंधित प्रस्तावना तैयार की जाती है |
प्रस्तावना -
पूर्व ज्ञान के
आधार पर शिक्षक प्रश्नों या चार्ट के द्वारा पाठ को प्रस्तावित करता है | प्रस्तावना का
अंतिम प्रश्न समस्यात्मक होता है |
क्रम संख्या
अध्यापक प्रश्न विद्यार्थी उत्तर \ प्रतिक्रिया
1
प्रश्न उत्तर
2
प्रश्न उत्तर
3
प्रश्न उत्तर
4
प्रश्न
समस्यात्मक
उद्देश्य कथन -
आज हम इस विषय वस्तु का विस्तृत अध्ययन
करेंगे | (कथन का उल्लेख
करना चाहिए )
प्रस्तुतीकरण -
पाठ योजना के इस भाग में विद्यार्थी के
सम्मुख नवीन ज्ञान
प्रस्तुत किया जाता है पाठ को सरल बनाने के लिए दो भागों में विभक्त कर सकते है जिसे अन्विति कहते है |
आदर्श वाचन अध्यापक
विद्यार्थी को पुस्तक खोलने का आदेश देता है और शब्दों का शुद्ध उच्चारण तथा विराम
चिन्हों का ध्यान रखते हुए उचित आरोह अवरोह के साथ पाठ्यवस्तु का
आदर्श वाचन करता है
अनुकरण वाचन अध्यापक
विद्यार्थियों में शुद्ध उच्चारण का विकास करने विराम चिन्हों का उचित
प्रयोग करने तथा आरोह अवरोह के साथ अनुकरण वाचन
करने के लिए कहेगा
उच्चारण संशोधन शिक्षक विषय वस्तु में आए
विद्यार्थियों द्वारा अशुद्ध उच्चरित शब्दों को श्यामपट्ट पर
लिखकर विद्यार्थियों को पुनः शुद्ध उच्चारण करवाएगा
काठिन्य निवारण अध्यापक विषय
वस्तु में आए कठिन शब्दों के अर्थ विभिन्न विधियों द्वारा स्पष्ट करेगा |
मौन वाचन अध्यापक
विद्यार्थियों को गहन अध्ययन हेतु विषय वस्तु का मौन वाचन करने का आदेश देता है |
बोधात्मक प्रश्न
शिक्षक पठाये गए पाठ में से
प्रश्न पूछता है जो बोधात्मक प्रश्न कहलाते हैं |
श्यामपट्ट कार्य -
शिक्षक द्वारा पढ़ाई गई विषय वस्तु में आए हुए कठिन
शब्दों को श्यामपट्ट पर लिखकर उनका अर्थ बताना
और विद्यार्थी द्वारा अशुद्ध उच्चरित शब्दों को श्यामपट्ट पर लिखकर
शुद्ध उच्चारण करके पुनः बताना |
मूल्यांकन
अध्यापक द्वारा पढ़ाए गए पाठ में से ऐसे
प्रश्न पूछे जाते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि विद्यार्थी ने कहां तक नवीन ज्ञान
अर्जित किया है
गृह कार्य
पाठ के अंत में
विद्यार्थी को पाठ से संबंधित कुछ कार्य घर के लिए देना चाहिए इसकी जांच अगले दिन
की जानी चाहिए इससे विद्यार्थी अर्जित ज्ञान का प्रयोग करना सीखते हैं |
अनुदेशनात्मक उद्देश्य लेखन
अनुदेशन का अर्थ : -
अनुदेशन शब्द का साधारण भाषा में अर्थ है – सूचाना देना अथवा आज्ञा देना।
अनुदेशन को अंग्रेजी में Instruction कहते है। अनुदेशन शब्द का वास्तविक रूप हमे कक्षा शिक्षण
में मिलता है। कक्षा शिक्षण के समय अध्यापक विषय को छात्र तक पहुँचाने के लिए जो
क्रिया करता है, उसे अनुदेशन
कहते है। दूसरे शब्दों में, अनुदेशन शिक्षक तथा शिक्षार्थी के मध्य पाठ्यक्रमीय ज्ञान
के आदान-प्रदान कि क्रिया है।
एस.एम्.कोरे(S.M.Corey):- “अनुदेशन एक पूर्वनियोजित शैक्षिक प्रक्रिया है जिसमे
शिक्षार्थी के वातावरण को इस प्रकार नियंत्रित किया जाता है कि विशिष्ट
परिस्थितियों में वह इच्छित व्यवहार को प्रदर्शित कर सकें।”
गेट्स (Gates) :- “अनुदेशन वह प्रक्रिया है, जो शिक्षार्थी को कुछ उदेश्यों
की ओर प्रभावित करती है।”
अनुदेशन की प्रक्रिया :-
अनुदेशन की प्रक्रिया में कम से कम व् किसी न किसी प्रकार
से एक प्रकार का वार्तालाप चलता है जिसका उद्देश्य तर्क देना, प्रमाणों की सत्यता बताना, उपयुक्तता सिद्ध करना, व्याख्या करना, निष्कर्ष निकालना आदि आते है, जिसमे समय - सीमा, उपलब्ध साधन और पाठ्यक्रम को
ध्यान में रखते हुए उदेश्यों का निर्धारण किया जाता है। उदेश्यों को प्राय:
व्यवहारगत परिवर्तनों के रूप में लिखा जाता है। ये उद्देश्य यदि प्राप्त हो जाते
है, तब इसका अर्थ यह है कि अनुदेशन
के पश्चात शिक्षार्थी इन व्यवहारों को प्रदर्शित कर सकेगा। अनुदेशन व्यवहारगत
परिवर्तन पर आधारित होता है इसमें दो प्रकार के व्यवहारों पर बल दिया जाता है : -
(अ) न्यूनतम आवश्यक व्यवहार –यह व्यवहार
विषयवस्तु को सीखने के लिए आवश्यक पूर्वज्ञान से सम्बन्धित है।
(ब) अंतिम व्यवहार –जिन्हें शिक्षार्थी विषयवस्तु को सीखने के प्रमाणस्वरूप
प्रदर्शित करता है।
अनुदेशन देने से पूर्व जिन छात्रों को अनुदेशित किया जाना
है, उनकी मानसिक योग्यता तथा
सामाजिक – आर्थिक स्थिति का ज्ञान भी
प्राप्त कर लेना आवश्यक है।
अनुदेशनात्मक उद्देश्य के सोपान [Steps of Instruction]
:-
अनुदेशन में प्रयुक्त कि जाने वाली किसी भी प्रणाली जैसे - लेखन, व्याख्यान, प्रदर्शन, सामान्य शिक्षण आदि में
निम्नलिखित अनुदेशन के सोपान का अनुसरण किया जाना चाहिए :-
1. उदेश्यों का निर्धारण :- अनुदेशन के उद्देश्य
स्पष्ट एवं सुनिश्चित होना चाहिए तथा प्रशिक्षणार्थियों द्वारा प्रशंसनीय होना
चाहिए।
2. तैयारी :- अनुदेशन की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि
अनुदेशन की तैयारी कैसी की गई है, क्योंकि पूर्व सुनियोजित तैयारी ही अधिगमकर्ता (Learner) को सीखने में सहायता प्रदान
करती है।
3. प्रस्तुतिकरण : - अनुदेशन कि भूमिका एक निर्माता, प्रबंधक, अभिनेता, प्रोत्साहक आदि अनेक रूप में
होती है, अत: अनुदेशक को प्रस्तुतिकरण
करते समय अत्यंत सावधानी बरतनी पड़ती है।
4. सम्प्रेषण : - अनुदेशक के द्वारा अभिव्यक्त किए गए विचार छात्रों तक
भली-भांति पहुँचने चाहिए।
5. आत्मिकरण :- संप्रेषित विचारों को छात्रों द्वारा आत्मसात किया जाना
चाहिए, ताकि अनुदेशक छात्रों में
विश्वास जागृत कर, उनके लिए प्रेरणा का स्तोत्र बन सकें।
6. मूल्यांकन : - मूल्यांकन के द्वारा छात्रों की कमजोरियों को ज्ञात कर
उनके निवारणार्थ ऊपर किया जा सकता है।
7. पृष्ठपोषण [feed-back] : - जो भी पाठ विद्यार्थीयों को
पढाया जाये, उसमे उनके
द्वारा की गई त्रुटियों व उपलब्धियो का ज्ञान अनुदेशक द्वारा करवाया जाना चाहिए।
उपरोक्त सभी अनुदेशन के सोपान और प्रक्रिया से यह स्पष्ट
होता है कि अनुदेशन एक कक्षा शिक्षण में चलने वाली प्रक्रिया है जिसे व्यवस्थित रूप से कक्षा में
शिक्षक द्वारा प्रयुक्त किया जाता है।
शिक्षण कौशल
कसी भी कार्य को अच्छी तरह से
करने के लिए कुछ
विशेष प्रयत्न की जरूरत होती है और शिक्षण तो एक जटिल प्रक्रिया है। इसको समझने के लिए
निरन्तर अभ्यास का होना आवश्यक है और जब अभ्यास क्रम पूरा हो जाता है तब उस अवस्था
को कहा जाता है कि उस कार्य के प्रति हमने कुशलता प्राप्त कर ली। शिक्षण
में जब हम कुशलता की बात करते हैं तो उसे शिक्षण कौशल का नाम दिया जाता है।
शिक्षण कौशल अर्थात्
शिक्षण कार्य में कुशलता। इसका आशय शिक्षक द्वारा शिक्षण देते समय अपनाये जाने
वाले हाव-भाव, भंगिमा या विविध कार्य-कलापों
के व्यवहारिक तौर-तरीकों के समूह से
लगाया जाता है। शिक्षण कौशल से शिक्षण बिन्दुओं के क्रम का
ज्ञान होता है। शिक्षण के तीन पहलू का ज्ञान (भावात्मक, ज्ञानात्मक
तथा क्रियात्मक) कराने में शिक्षण कौशलों की
आवश्यकता स्वयं में ही स्पष्ट है।
शिक्षण कौशल की परिभाषा-
एन0एल0गेज- शिक्षण कौशल वह
विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है, जिसे शिक्षक अपने कक्षा शिक्षण में प्रयोग
कर सकता है। यह शिक्षणक्रम की विविध क्रियाओं से सम्बन्धित होता है, जिन्हें शिक्षक
अपनी कक्षा अन्त:क्रिया में निरन्तर प्रयोग में लाता है।’’
प्रो0बी0के0पासी0- ‘‘यह सम्बद्ध शिक्षण
व्यवहारों का वह स्वरूप होता है, जो कक्षा की विशिष्ट अन्तः प्रक्रिया,परिस्थितियों
को उत्पन्न करता है, जो शैक्षिक उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक होते
हैं और छात्रों को सीखने में सुगमता प्रदान करते हैं।
शिक्षण
कौशल निम्नलिखित
प्रकार के हैं –
Ø प्रस्तावना
कौशल
Ø व्याख्या
कौशल
Ø प्रश्नीकरण
कौशल
Ø लेखन कौशल
Ø श्यामपट्ट
कौशल
Ø उद्दीपन
कौशल
Ø उदाहरण कौशल
Ø पुनर्वलन
कौशल
Ø पुनरावृत्ति
कौशल इत्यादि
सूक्ष्मशिक्षण
सूक्ष्मशिक्षण
का अर्थ( Meaning of
Micro Teaching)
शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया बहुत सारी
कुशलताओं का सम्मलितताना बाना है। इन कुशलताओं में से एक एक कौशल को सुधारने हेतु
प्रत्येक शिक्षण कौशल पर पृथकतः ध्यान देने की आवश्यकता को शिद्दत से महसूस किया
गया इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु वर्तमान में प्रयुक्त सम्प्रत्यय है –सूक्ष्मशिक्षण
सूक्ष्म शिक्षण ,शिक्षण प्रशिक्षण
की प्रयोगात्मक विधि है सूक्ष्म शिक्षण काम समय में अधिक लाभान्वित करने का तरीका
है इसमें अध्ययन की एक इकाई और एक कौशल का प्रयोग कर अल्पअवधि तक विद्यार्थियों के
एक छोटे समूह को पढ़ाता है जब प्रशिक्षाणार्थी पढ़ा लेता है तब प्रतिपुष्टि, पर्यवेक्षक द्वारा
प्रदान की जाती है इस आधार पर पाठ में संशोधन कर पुनः पाठ योजना तैयार की जाती है
उसी विषय वास्तु को पुनः पढ़ाया जाता है और पहली बार पढ़ाने में जो कमियां रह गयी थीं
उनका निराकरण होता है और अगर दूसरी बार भी कमी रहती है तो पढ़ाने की प्रक्रिया
पूर्ण होने के बाद पर्यवेक्षक पुनः प्रतिपुष्टि देता है यही चक्र इस सूक्ष्म
शिक्षण का आधार है।
उक्त आधार पर कहा जा सकता है कि :-
“सूक्ष्म शिक्षण अध्यापनके एक एक कौशल को
कृत्रिम वातावरण में अल्पावधि में सीखने की सोद्देश्यपूर्ण क्रिया है।”
सूक्ष्म
शिक्षण की परिभाषा (Definitions of Micro Teaching) :
सूक्ष्म शिक्षण विभिन्न परिभाषाओं
को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है :-
एलन(Allen) व रायन( Ryan)के अनुसार -“सूक्ष्म शिक्षण एक
प्रशिक्षण सम्प्रत्यय है ,जो सेवापूर्व और सेवारत शिक्षकों के व्यावसायिक विकास में
प्रयोग किया जा सकता है। सूक्ष्म शिक्षण शिक्षकों को शिक्षण अभ्यास के लिए एक ऐसी
स्थिति प्रदान करता है ,जिसमें कक्षा कक्ष की सामान्य जटिलताएँ कम हो जाती हैं और
जिसमें शिक्षक अपने निष्पादन( शिक्षण व्यवहार) पर वृहत मात्रा में प्रतिपुष्टि
प्राप्त करता है। ”
“Micro teaching is a training concept that can be applied
to various preservice and inservice stages in professional development of
teachers. Micro teaching provides teachers with a practical setting for
instruction in which the normal complexities of the class room are reduced and
in which the teacher receives a great deal of feedback on his performance.”
शिक्षा – विश्वकोष(The
Encyclopedia of Education) के अनुसार -” सूक्ष्म शिक्षण
वास्तविक निर्मित तथा अध्यापन अभ्यास का न्यूनीकृत अनुमाप है जो शिक्षण
प्रशिक्अनुसन्धान में प्रयुक्त्त किया जाता है।”
“Micro-teaching is a real constructed,Scaled
down,Teaching encounter which is used for teacher training curriculum development
and research”
बी 0 के 0 पासी (B.K.Passi) के अनुसार – “सूक्ष्म शिक्षण एक
प्रशिक्षण तकनीक है जो छात्र अध्यापक से यह अपेक्षा रखती है की वे किसी तथ्य को
थोड़े से छात्रों को कम समय में किसी विशिष्ठ शिक्षण कौशल के माध्यम से शिक्षा दें।”
“Micro-Teaching is a training technique which requires
student teacher to teach a single concept to a small number of pupils using
specified teaching skills in a short duration of time.”
उक्त आधार पर कहा जा सकता है कि सूक्ष्मशिक्षण एक ऐसी तकनीक
है जिससे अल्पावधि में नियत पाठ इकाई के आधार पर एक
कौशल पर सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित कर कृत्रिम कक्षा स्थितियों में अल्पावधि में
सिद्धहस्त हुआ जा सकता है और पर्यवेक्षक के निर्देशन में त्रुटि निवारण भी सम्भव
है।
सूक्ष्म
शिक्षण चक्र (Micro Teaching Cycle)-
पाठ योजना (Lesson Planning)-शिक्षण (Teaching)- प्रतिपुष्टि (Feedback)-पुनः पाठ योजना (Re-Lesson
Planning)- पुनः शिक्षण (Re-Teaching)- पुनः प्रतिपुष्टि
(Re-Feedback)
कौशल में सुधार हेतु यह क्रम जारी रहता है। इस चक्र से
वांछित परिणाम प्राप्त किये जाते हैं।
सूक्ष्म
शिक्षण का विकास ( Development of Micro Teaching)-या सूक्ष्म
शिक्षण का इतिहास ( History of Micro Teaching )-
आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है इस क्रम में साधन क्रिया
को सरल बना देते हैं जब शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सशक्त व प्रभावी बनाने हेतु कीथ
ऐचीसन चिन्तन कर रहे थे उसी समय 1961 में एक जर्मन वैज्ञानिक द्वारा छोटे टेप
रिकॉर्डर के आविष्कार के बारे में खबर छपी इस खबर को पढ़कर उन्होंने शिक्षण अभ्यास
के समय सुपरविसेर के स्थान पर ध्वनि दृश्य टेप रिकॉर्डर का प्रयोग किया इससे पाठ को पढ़ाने
वाले ,प्रशिणार्थी अपने
व्यवहारों में परिमार्जन करने करने लगे। एचिसन ने इस विचार को स्टेनफोर्ड
विश्वविद्यालय के इनके सहयोगी बुश और एलन का समर्थन
प्राप्त हुआ और 1964 से प्रतिपुष्टि प्रदान करने हेतु साधन का
व्यावहारिक प्रयोग प्रारम्भ हुआऔर व्यवहार में वांछित परिवर्तन पारिलक्षित होने
लगा, दी गयी प्रतिपुष्टि
की प्रभावात्माकता सिद्ध होने लगी। स्टेनफोर्ड विश्व विश्वविद्यालय आसपास के
प्रशिक्षण विद्यालयों के वीडिओ टेप विवेचना कर उन्हें
वापस कर देता था इससे अपेक्षित सुधार सुगम व निर्विवाद हो गया।
इसकी सफलता देख सेन जॉन्स स्टेट
यूनिवर्सिटी ने इस सूक्ष्म शिक्षण को प्रभावशाली उपागम सिद्ध किया स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय
ने शोधार्थी हेरी गेमिसन के शोधाधार पर स्टेनफोर्ड शिक्षक सामर्थ्य मूल्यांकन गाइड
सृजित की इस प्रकार एचीसन,एलन ,क्लेनवेश सेनजोश ,टकमैन आदि ने सूक्ष्म शिक्षण विकास
यात्रा में अभूतपूर्व योगदान दिया सन 1969 तक संयुक्त
राष्ट्र के 141 विश्वविद्यालय सूक्ष्म शिक्षण से शिक्षण कौशल दक्षता बढ़ाने
का कार्य करने लगे।
भारत में
सूक्ष्म शिक्षण की विकास [DEVELOPMENT OF MICRO-TEACHING IN BHARAT]-
भारत में इलाहाबाद विश्व विद्यालय के डी 0 डी 0 तिवारी (1967 )के द्वारा शिक्षण
प्राकिशन के क्षेत्र में सूक्ष्म शिक्षण का प्रयोग किया गया जो की आज के सूक्षम
शिक्षण भिन्नता लिए हुए
था इसके बाद
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवम प्रशिक्षण परिषद ,नई दिल्ली [N.C.E.R,T.,NEW
DELHI],एम0 एस0 विश्वविद्यालय
बड़ौदा [M.S.UNIVERSITY
,BARODA] चण्डीगढ़,वाराणसी ,देहरादून आदि भी इस परिक्षेत्र से जुड़े ,१९७०से इसके
प्रसार ने गति पकड़ी मद्रास में जी 0 बी 0 शाह ने इसे शिक्षक
प्रशिक्षण में प्रयुक्त किया सी दोसाज 1970, कलकत्ता में भट्टाचार्य
1974 का भी विशेष
योगदान रहा ,पासी एवं शाह 1974 ने सूक्ष्म शिक्षण
परिक्षेत्र में प्रथम प्रकाशन किया।पासी,ललिता व जोशी 1976 में व
बड़ौदा में सिंह एवं ग्रेवाल,गुप्ता 1978 ने इस क्षेत्र में
विशेष कार्य किया। सन 1978 में ही इन्दौर विश्व विद्यालय ने ही National
proposal for the Project की रचना की, इसके तहत विभिन्न
विश्व-विद्यालयों के शिक्षक प्रशिक्षकों का सहयोग लिया गया व राष्ट्रीय शैक्षिक
अनुसन्धान एवम प्रशिक्षण परिषद ,नई दिल्ली के सहयोग से इसे पूरा किया गया एवं इस क्षेत्र
में सतत प्रयास व शोध कार्य को गति मिली। तत्पश्चात जिन विश्वविद्यालयों ने
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रस्तावित शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम स्वीकारा
वहां सूक्ष्मशिक्षण कार्य क्रियान्वित हुआ व निरन्तर इसका प्रयोग
विकास के नूतन आयाम पा रहा है।
सूक्ष्म
शिक्षण की विशेषताएं (Characteristics of Micro-Teaching)-
परम्परागत शिक्षण से भिन्न सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण
में प्रभावी भूमिका अपनी निम्न विशेषताओं के आधार पर निर्वाहित कर पा रही है। :-
Ø इसमें अधिगमार्थियों की
संख्या 5 से 10 के बीच होती है।
Ø शिक्षण अवधि 5 से 10 मिनट के बीच रखी जाती
है।
Ø वास्तविक छात्रों
की जगह अधिकांशतः सहपाठी ही छात्र की भूमिका अभिनीत करते हैं।
Ø एक कालांश एक कौशल
के प्रशिक्षण हेतु होता है।
Ø विषय वस्तु एक
सूक्ष्म इकाई होता है।
Ø पुनः सुधार का
अवसर उपलब्ध होता है।
Ø यह छात्राध्यापक
केन्द्रित रहती है।
Ø यह व्यावसायिक
प्रवीणता देने में सक्षम विधि है।
Ø यह लघु अवधि में अधिक दक्ष
बनाती है।
Ø प्रतिपुष्टि
तुरन्त प्राप्त हो जाती है।
Ø समय बद्ध होने से
गति विधियां नियन्त्रित रहती हैं।
Ø शिक्षण कौशल विकास
की अत्याधिक प्रभावी व व्यावहारिक व्यवस्था है।
भारतीय
मॉडल (Bhartiy model):
पाठ योजना(Lesson Planning)———— –
शिक्षण (Teaching)————————— 05 - 06 मिनट
कौशल (Skill) :
वर्तमान में अधिकांश अध्यापक प्रशिक्षण
महाविद्यालय मुख्यतः -
Ø प्रस्तावना कौशल(Introductory
Skill ),
Ø प्रश्नीकरण कौशल (Questioning
Skill ),
Ø व्याख्या कौशल (Explanation
Skill),
Ø व्याख्यान कौशल (Lecture
Skill),
Ø दृष्टान्त कौशल (Illustration
Skill ),
Ø उद्दीपन परिवर्तन कौशल
(Stimulus
Variation Skill),
Ø पुनर्बलन कौशल( Reinforcement
Skill),
Ø श्याम पट्ट कौशल (Blackboard
Skill),
Ø पाठ समापन कौशल (Lesson closure
Skill) आदि का अभ्यास कराते हैं।
कहानी कहना भी कला हैं। छोटे बच्चे स्वाभाविक रुप में
इन्हें याद भी कर लेते हैं। बालक नायक पूजक होता है।
वीर गाथायें कुतहल जाग्रत करती हैं, संवेगों को गतिशील बना देती
हैं और बालक को सक्रिय कर देती है। साधारणतः छोटे बालक पढ़ने में रुचि नही लेते हैं
और पढ़ने के नाम से जी चुराते हैं। अतः पाठ्य वस्तु को कहानी के रुप में प्रस्तुत
करना चाहिए,
हिंदी शिक्षण की विधियाँ –
कहानी कथन - कहानी एक लघु गद्य रचना है जिसमें मानव
जीवन एवं चरित्र का वर्णन बड़े ही मर्मस्पर्शी, ह्रदयस्पर्शी,कलात्मक एवं आकर्षक
रूप में होता है | भाषा प्रधान रचना होने के कारण कहानी की गणना राग आत्मक पाठों
में होती है लघुता कहानी की प्रमुख विशेषता है विद्वानों ने कहानी को ऐसी छोटी
रचना कहा है जो एक ही बैठक में पूरी पढ़ी जा सके एच0जी0 वेल्स ने कहानी को एक लघु रचना माना है
शिक्षण की दृष्टि से कहानी शिक्षण की विधि है छोटे बच्चे कहानी सुनने में अधिक
रुचि लेते हैं प्राथमिक स्तर पर कहानी शिक्षण विधि का अधिक प्रयोग किया जाता है |
कहानी का अर्थ एवं विशेषताएं -
संस्कृत साहित्य में कहानी के लिए अनेक शब्द आख्यायिका,कथानिका,गल्फ,कथानक
और वृतांत शब्दों का प्रयोग किया जाता है आचार्यों ने विस्तार एवं प्रयोजन की
दृष्टि से इसे आख्यान परी कथा, खंड कथा, उपकथा, व्रहतकथा आदि उपभेदों में भी
विभाजित किया है साधारण बोलचाल की भाषा में किस्सा कहानी भी कहते हैं कहानी और
शैली की दृष्टि से कहानी के उपन्यास अधिक समीप है वाह दृष्टि से कहानी और उपन्यास
में समानता अवश्य है परंतु सोच में दृष्टि से अधिक अंतर है कथानक उपन्यास का प्राण
है कहानी के बिना कथानक के भी हो सकती हैं कहानी में गौड़ कथाएं नहीं होती है कहानी
में एक मुख्य कथा होती है कहानी में चरित्र का होना आवश्यक नहीं है उपन्यास
संपूर्ण जीवन है और उस जीवन का एक अंश होता है प्रभाव कहानी का प्राण होता है
कहानी की दुनिया छोटी होती है उपन्यास जीवन का व्यापक रूप होता है कहानी का इतिहास
अधिक प्राचीन है कहानी की भाषा में स्वाभाविकता तथा वास्तविकता होती है कहानी गागर
में सागर होती है एक उद्देश्य को लेकर कहानी लेखक लिखता है जैसे कि उद्देश्य की
पूर्ति हो जाती है कहानी समाप्त हो जाती है जीवन की किसी घटना को लेकर ही कहानी
लिखी जाती है कहानी में पात्रों की संख्या भी सीमित होती है
हिंदी भाषा शिक्षण में कहानी कहने का बहुत अधिक
महत्व है भाषा इतिहास भूगोल आदि विषयों में कहानी प्रणाली का प्रयोग किया जाता है
कहानी रचना एक लघु अनुबंधित की जाती है
एडिशन के अनुसार जब हमें कोई
शिक्षा दीक्षा तथा उपदेश देना हो तब हमें कहानी की रचना करनी चाहिए कहानी शिक्षण
का साधन एवं प्रभावशाली माध्यम है |
प्लेटो के अनुसार कहानी का अर्थ
होता है - शरीर के लिए भोजन तथा व्यायाम और मस्तिष्क के लिए कहानी एवं संगीत
आवश्यक है |
इन के अनुसार कथा कहानी शिक्षा का ही एक अंग है
अतः कहानी शिक्षा प्रदान करने से मानसिक संतुष्टि होती है साथ ही मनोरंजन भी होता
है |
मुंशी प्रेमचंद्र के अनुसार कहानी एक ऐसी
रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग अथवा एक मनोभाव को प्रस्तुत करना ही लेखक का
उद्देश्य हो यह एक ऐसा सुंदर उद्यान नहीं है जिसमें भली-भांति बेल बूटे तथा फल फूल
हो वरन यह एक ऐसा गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने संतुलन रूप में
दृष्टिगोचर होता है |
एच0जी0
वेल्स के अनुसार कहानी एक छोटी रचना है कहानी एक लघु
वर्णनात्मक गद्य रचना है जिसमें वास्तविक जीवन को कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया
जाता है कहानी का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन करना होता है |
कहानी शिक्षण के गुण
कहानी शिक्षण के गुण कहानी की विशेषताओं से
कहानी शिक्षण के गुण का भी बहुत होता है बालकों की अभिव्यक्ति की विकास की दृष्टि
से कहानी और कहानी शिक्षण का विशेष महत्व है यहां कहानी शिक्षण के प्रमुख गुणों का
उल्लेख किया गया है -
Ø स्मरण शक्ति का
विकास
Ø मनोरंजन का सशक्त
साधन
Ø शब्द भंडार तथा
मुहावरों का ज्ञान
Ø सामान्य ज्ञान की वृद्धि
Ø मानव व्यवहार एवं
चरित्र का परिचय
Ø तर्क विवेक संकल्प
एवं कल्पना शक्ति की अभिवृद्धि
Ø अवलोकन एवं
निरीक्षण शक्ति का विकास
Ø सर्जनात्मकता का
विकास
Ø भाव अभिव्यक्ति की
योग्यता का विकास
Ø वक्ता और श्रोता
के बीच घनिष्ठ एवं आत्मीयता
Ø
साहित्य विकास का उत्तम साधन
स्मरण शक्ति का विकास - बालक जटिल
प्रसंगों तथा उपकरणों को भी कहानी के माध्यम से सुगमता एवं सरलता से समझ लेते हैं
प्राकृतिक सौंदर्य का शिक्षण करने के लिए भी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जाए
तब वह सरलता से बोधगम्य कर लेते हैं |
मनोरंजन का सशक्त साधन - कहानी के पढ़ने
से जिज्ञासा तथा उत्सुकता जागृत होती है उनकी संतुष्टि से आनंद मिलता है और
मनोरंजन होता है |
शब्द भंडार तथा मुहावरों का ज्ञान - कहानी को पाठक
एकाग्र होकर पड़ता है तथा सुनता है और समझने का भी प्रयास करता है कहानी शिक्षण
में प्रयुक्त मुहावरों का तथा शब्दों को अर्थ स्वाभाविक रूप से ग्रहण कर लेता है
शिक्षक तथा शिक्षार्थी में कहानी विधि से समीपता भी आती है |
सामान्य ज्ञान की वृद्धि - कहानी द्वारा
मनोरंजनात्मक ढंग से बालक संसार के अनेक क्षेत्रों का भी ज्ञान अनायास ही प्राप्त
कर लेता है प्रारंभिक अवस्था में पशु पक्षियों जीव जंतुओं की कहानियों से अनेक
संबंध में बालकों को परिचय प्राप्त हो जाता है आधुनिक वैज्ञानिक कहानियों द्वारा
बालकों में विज्ञान के प्रति रुचि जागृत होती है और विज्ञान संबंधी अनेक बातें
आसानी से भी सीख लेते हैं |
मानव व्यवहार एवं चरित्र का परिचय - मानव व्यवहार सदाचार
शिष्टाचार विविध परिस्थितियों में व्यवहारिकता कुशलता एवं आचरण की विधि का ज्ञान बडे
ही सरल रूप में कहानी द्वारा प्राप्त हो जाता है मानव चरित्र के रहस्य मानसिक अंतर्द्वंदों
एवं चरित्र गत सूचनाओं का परिचय जितना कहानियों से मिलता है उतना अन्य रचनाओं से नहीं
मिलता है |
तर्क विवेक संकल्प एवं कल्पना शक्ति की
अभिवृद्धि - इन शक्तियों का विकास कहानियों द्वारा
यथेष्ट मात्रा में होता है विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य किस प्रकार होता है
प्रस्तुत आपत्तियों का सम्मान करता है जटिलताओं एवं खुशियों को समझाता है अंतर जनों
एवं वाह घात प्रतिघात से जीवन की गतिविधियों किस प्रकार निर्दिष्ट होती हैं किस
प्रकार नई-नई संकल्पना उदबद्ध होती हैं आदमी का परिचय कहानी शिक्षण द्वारा सहज ही
हो जाता है कहानी संवेगों में संतुलन करना सिखाती है |
अवलोकन एवं निरीक्षण शक्ति का विकास - कहानियों के
कथानक विकास एवं चित्रांकन द्वारा बालकों में भी सोच में दर्शिता एवं अंतर दर्शिता
का विकास होता है |
सृजनात्मकता का विकास - कहानियों के
अध्ययन से बालकों में स्वयं रचना करने की शक्ति का उदय एवं विकास होता है चित्र
एवं संकेतों के आधार पर वह घटना सूत्रों को समझने तथा नई कहानी रचने लगते हैं |
भाव अभिव्यक्ति की योग्यता का विकास - भाव एवं विचारों
को प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त करने की क्षमता प्राप्त होती है झिझक और संकोच की
भावना दूर होती है बोलने में स्वाभाविकता सरसता एवं प्रवाह आ जाता है |
वक्ता और श्रोता के बीच घनिष्ठता एवं आत्मीयता - वक्ता और श्रोता
के बीच घनिष्ठता एवं आत्मिकता की स्थापना का सर्वोत्तम साधन कहानी है अध्यापक अन्य
प्रकार की वर्णन में छात्रों की आत्मिकता नहीं बन पाता है विद्यार्थियों का आत्मीय
नहीं बन पाता है परंतु कहानी द्वारा वह उन में घुल मिल जाता है कक्षा का वातावरण
घर जैसे बन जाता है |
साहित्य विकास का उत्तम साधन - कहानी रचना
करना भी अन्य साहित्य की रचना की अपेक्षा शुगम तथा सरस है साहित्य के अनुराग कहानियों के
माध्यम से ही होता है कहानियों के पढ़ने में सभी की अधिक रुचि होती है क्योंकि
पाठकों को आनंद प्राप्त होता है साहित्य विकास एवं प्रसार होता है सामाजिक
कुरीतियों को दूर कर सकते हैं सामाजिक सुधार में कहानियों की महत्वपूर्ण भूमिका है
|
कहानी रचना के मूल तत्व
Ø कथावस्तु
Ø पात्र एवं चरित्र
चित्रण
Ø कथोपकथन
Ø भाषा शैली
Ø देशकाल
Ø संवेदनशीलता
Ø
उद्देश्य
कहानी शिक्षण के सामान्य उद्देश्य - कहानी के
प्रकार तथा तत्वों का क्षेत्र अधिक विस्तृत है इसलिए शिक्षण के उद्देश्य भी अनेक
हैं प्रमुख उद्देश्यों को यहां दिया गया है जो इस प्रकार हैं -
1.छात्रों को ज्ञान
प्रदान करने के साथ-साथ स्वस्थ मानव विनोद एवं मनोरंजन की शिक्षा देना |
2.छात्रों को भाषा
शैली शब्दावली तथा मुहावरों से अवगत कराना विद्यार्थियों में विचार कल्पना शक्ति
तर्क शक्ति का विकास करना |
3.छात्रों में भाव अभिव्यक्ति तथा चारित्रिक
गुणों को विकसित करना विद्यार्थियों में संभागों को नियंत्रण करने की क्षमता का
विकास करना|
4. विद्यार्थियों
में हिंदी साहित्य एवं भाषा के प्रति अनुराग का विकास करना
5.विद्यार्थियों में आदर्श जीवन के प्रति
यथार्थता एवं सभ्यता का विकास करना |
6.विद्यार्थियों में
आदर्श जीवन के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना |
7. विद्यार्थियों
में सामाजिकता एवं राष्ट्रीय भावना का विकास करना |
विद्यार्थियों में कहानियों का अंतिम उद्देश्य
सत्यम शिवम सुंदरम की प्राप्ति कराना विद्यार्थियों को कहानी की एक कला की संज्ञा
दी जाती है इसलिए सौंदर्य भूति कलात्मक पदों का भी विकास करना है |
कहानी शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य
ज्ञानात्मक
उद्देश्य
Ø विद्यार्थियों को
शब्द शक्ति लोकोक्ति और मुहावरों का ज्ञान कराना
Ø विद्यार्थियों को
कहानी लेखन की विभिन्न शैलियों का ज्ञान कराना
Ø विद्यार्थियों को
पौराणिक कथाओं ऐतिहासिक घटनाओं सामाजिक दशा और सांस्कृतिक मूल्यों धार्मिक
विश्वासों और मानव स्वभाव से परिचित कराना
कौशल आत्मक उद्देश्य
Ø विद्यार्थियों को मनोयोग
से सुनने और सुनकर अर्थ ग्रहण करने तथा मनोयोग से पढ़ने और पढ़कर अर्थ ग्रहण करने में
निपुण कराना
Ø विद्यार्थियों की
मौखिक एवं लिखित अभिव्यक्ति में विकास करना
Ø विद्यार्थियों को
कहानी कहने और कहानी लिखने में निपुण करना
Ø विद्यार्थियों की
बोध कल्पना और तर्क आदि शक्तियों का विकास कराना
भावात्मक उद्देश्य
Ø विद्यार्थियों का
मनोरंजन कर आना और उनमें कहानी पढ़ने एवं सुनने की रुचि उत्पन्न करना
Ø विद्यार्थियों की
सृजनात्मक शक्तियों का विकास करना
Ø विद्यार्थियों में
मातृभाषा एवं उसके साहित्य के प्रति स्थाई भाव का निर्माण करना
विद्यार्थियों में
उच्च अभिवृत्ति यों का विकास करना और उनके व्यक्तित्व का निर्माण करना कहानी
शिक्षण को कक्षा विशेष में पढ़ाने से पहले हमें उनकी शिक्षा लक्ष्य निश्चित करने
होते हैं इन लक्ष्यों को निश्चित करते समय हमें कहानी शिक्षण उद्देश्य कहानी की
विषय सामग्री के स्तर और प्राप्त समय आदि तत्वों को सामने रखना चाहिए |
समवाय विधि
यह शिक्षण की नवीन विधि
है इस विधि का उपयोग करते समय शिक्षक विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता
है तथा अपना विषय ज्ञान कराने के लिए विद्यार्थियों के साथ मिलकर तैयारी करता है
विद्यार्थियों को टोलियों (समूह) में विभक्त कर दिया जाता है टोली नायक को कार्य
भली-भांति समझा दिया जाता है वह अपने समूह का शिक्षण करता है इस विधि में
विद्यार्थी अपने अपने समूह में भाषा सीखते हैं इससे शिक्षक को विद्यार्थियों की
कार्य करने की शक्ति और योग्यता के मापन का अवसर मिलता है विद्यार्थियों में
अनुसंधान की प्रवृत्ति जागृत होती है |
आज के विद्वान समवाय विधि
के प्रयोग पर अधिक बल देते हैं इस प्रणाली के अनुसार भाषा के विभिन्न उप विषयों
गद्य पद्य व्याकरण आदि की शिक्षा देते समय कुछ प्रश्न दिए जाने चाहिए जिनका उत्तर
बच्चे निबंधात्मक शैली में लिखकर लाएं भाषा की शिक्षा ही क्या , किसी भी विषय की
शिक्षा देते समय भाषा रचना की शिक्षा दी जा सकती है शिक्षकों को चाहेगी की वह कोई
भी विषय पढ़ाते हैं छात्रों के लिखित भाषा में सुधार करते चलना चाहिए |
समवाय विधि के गुण
Ø विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार साथियों के साथ समूह में सीखता है |
Ø बहु कक्षा शिक्षण में उपयोगी है ज्ञान का सुदृढ़ीकरण होता है इस विधि में समय
की बचत होती है |
Ø इस विधि में विद्यार्थियों तथा शिक्षकों के बीच समन्वय स्थापित होता है |
समवाय विधि के दोष
Ø नियोजन ठीक ना होने पर समूह को गलत संदेश जा सकता है |
Ø शिक्षक का विद्यार्थियों के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है |
Ø विद्यार्थियों में अहम का भाव पैदा हो जाता है |
आगमन विधि ( Inductive Method) :-
इस विधि में प्रत्यक्ष
अनुभवों, उदाहरणों तथा प्रयोगों का
अध्ययन कर नियम निकाले जाते है तथा ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सूझ बुझ से
निर्णय लिया जाता है| इसमें शिक्षक छात्रों को अध्ययन
Ø प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर,
Ø स्थूल से सूक्ष्म की ओर, एवं
Ø विशिष्ट से सामान्य की ओर करवाते है|
आगमन विधि मे प्रयुक्त
चरण ( Steps of Inductive Method)-
सर्वप्रथम हम एक उदाहरण प्रस्तुत
करते हैं। (Example)उस उदाहरण का निरीक्षण किया जाता है। ( Observation)उस उदाहरण के आधार पर एक नियम बनाया जाता है, जिसे सामान्यीकरण कहा जाता है। (Generalization)उस सामान्य नियम का परीक्षण करके उसका सत्यापन किया जाता है। ( Testing and verification)
आगमन विधि के गुण–
एक वैज्ञानिक विधि है, जिससे बालकों में नवीन
ज्ञान को खोजनें का मौका उपलब्ध कराता है।
ज्ञात से अज्ञात की ओर, सरल से जटिल की ओर चलकर
बालकों से मूर्त उदाहरणों से सामान्य नियम निकलवाये जाते है, जिससे बालकों में
ज्ञिज्ञासा बनी रही रहती है।स्वयं से अधिगम करनें के कारण अधिगम अधिक स्थाई रहता
है।बालक स्वयं ही समस्या का निवारण अपनें विश्लेषण से प्राप्त करते हैं जिससे उनका
अधिगम स्थाई रहता है।व्यवहारिक और जीवन में लाभप्रद विधि है।
आगमन विधि के दोष–
समय अधिक लगता है।अधिक
परिश्रम और सूझ की आवश्यकता रहती है।एक तरह से अपूर्ण विधि है, क्योंकि खोजे गये नियमों
या तथ्यों कीजांच के लिए निगमन विधि की जरूरत होती है।बालक यदि किसी अशुद्ध नियम
की प्राप्ति कर ले तो उसे सत्य को प्राप्त करनें में अधिक श्रम व समय की जरूरत
होती है।
निगमन विधि Deductive Method-
इस विधि में पहले से
स्थापित नियमों व सूत्रों का प्रयोग करके अध्यापक छात्रों को समस्या का समाधान
करना सीखाते हैं।
Ø नियम से उदाहरण की ओर
Ø सामान्य से विशिष्ट की ओर,
Ø सूक्ष्म से स्थूल की ओर. एवं
Ø प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओरचलती है|
निगमन विधि के गुण– Properties of Deductive Method_
Ø यह एक सरल और सुविधाजनक विधि है,
Ø स्मरणशक्ति के विकास में सहायक है।
Ø संक्षिप्त और व्यवहारिक विधि है।
Ø बालक तेजी से सीखता है।
निगमन विधि के दोष–
Ø रटनें की शक्ति पर बल देती है।
Ø निजी विश्लेषण क्षमता का प्रयोग न करनें के कारण मानसिक विकास और कल्पना शक्ति
का विकास बाधित होता है।
Ø रटा हुआ ज्ञान स्थाई नहीं रह पाता है।
Ø छोटी कक्षाओं के लिए सर्वथा अनुपयुक्त विधि
गद्य शिक्षण -
गद्य साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसमें छन्द अलंकार योजना रस विधान आदि का
निर्वाह करना आवश्यक नहीं। गद्य की विशेषता तथ्यों को सर्वमान्य भाषा के माध्यम से, ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने में होती
है। गद्य साहित्य की अनेक विधाएँ है- कहानी नाटक, उपन्यास निबन्ध,
जीवनी, संस्मरण, आत्मचरित रिपोर्ताज व्यंग्य आदि।
गद्य शिक्षण का महत्व -
Ø दैनिक जीवन में: हमारे अनेक लेन-देन व्यापार गद्य के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। विद्यालयों में करवाया जाने वाला गद्य-शिक्षण इन कार्य-व्यापारों को कुशलता पूर्वक सम्पन्न करवाने में सहायक होता है।
Ø ज्ञानार्जन के रूप में: आज गद्य ज्ञानार्जन का मुख्य साधन है। समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाएँ, ज्ञान-विज्ञान की बातें हमें गद्य रूप में विपुल मात्रा में उपलब्ध है।
Ø भाषिक तत्त्वों की जानकारी: भाषा के तत्त्वों की जानकारी का सुगम तरीका गद्य है कविता
नही है । उच्चारण बलाघात, वर्तनी, शब्द, रूपान्तरण, उपसर्ग प्रत्यय,
सन्धि, समास, मुहावरे, लोकोक्ति पद,
पदबन्ध, तथा वाक्य संरचनाएं आदि भाषिक तत्त्वों का ज्ञान गद्य के
माध्यम से सुगमतापूर्वक दिया जा सकता है।
Ø व्याकरण-सम्मत भाषा: गद्य कवीनां निकवं वदार्ंन्त अर्थात् साहित्यकार की कसौटी
गद्य मानी गई है। गद्यकार को व्याकरण के समस्त नियमों का पालन करते हुए लिखना
पड़ता है। उसकी भाषा परिमार्जित एवं परिनिष्ठत होती है। विद्यार्थी जिस समय गद्य
को पढ़ता है, उसकी अपनी भाषा भी व्याकरण सम्मत हो जाती है।
Ø भावात्मक विकास: संस्कारों का परिमार्जन गद्य के माध्यम से ही संभव है। आज
गद्य के क्षेत्र में इस प्रकार का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है जिसके द्वारा छात्रों
का भावात्मक विकास सम्भव है। सन् 1986
में घोषित ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में
विद्यार्थियों के भावात्मक विकास पर विशेष बल दिया गया है।
गद्य शिक्षण के
उद्देश्य -
Ø व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग करना।
Ø शब्दों का प्रभावशाली प्रयोग करना।
Ø शब्द भण्डार की वृद्धि करना।
Ø संक्षिप्त जीवनी लिख सकना।
Ø सभाओं व उत्सवों का प्रविवेचन तैयार करना।
Ø लेखन में सृजनात्मकता व मौलिकता का विकास करना।
Ø लिपि के मानक रूप का व्यवहार करना
Ø रूप विज्ञान तथा ध्वनि विज्ञान के आधार पर शब्दों की वर्तनी
का ज्ञान होना
Ø शब्दकोश को देखने की योग्यता का विस्तार करना
Ø विराम चिन्हों का सही प्रयोग करना
Ø शब्दों, मुहावरों और पदबन्धों का उपयुक्त प्रयोग करना
Ø उपयुक्त अनुच्छेदों में बाँट कर लिखना
Ø देखी हुई घटनाओं का वर्णन करना
Ø सार, संक्षेपीकरण,
भावार्थ, व्याख्या लिखना
Ø अपठित रचना का सारांश लिख सकना
Ø किसी विषय की वर्णनात्मक तथा भावात्मक शैली में अभिव्यक्ति
कर सकना
Ø पठित रचना की व्याख्या करना
Ø वर्णात्मक, विवेचनात्मक,
भावात्मक शैलियों में निबन्ध लिखने की क्षमता का विकास करना
Ø विभिन्न साहित्यिक विधाओं के माध्यम से अपने भाव, विचार, अनुभव, प्रतिक्रिया व्यक्त करना।
गद्य-शिक्षण की
विधियाँ -
कविता कब और कैसे पढ़ाई जाए, इस विषय पर बहुत विचार मंथन हुआ है, परन्तु गद्य कब और कैसे पढ़ाया जाये, इस पर अपेक्षाकृत कम विचार हुआ है। गद्य
शिक्षण की जिन प्रणालियों का अब तक विकास हुआ है, उनका सामान्य परिचय प्रस्तुत है-
1. अर्थकथन प्रणाली:- इस प्रणाली में अध्यापक
गद्यांशों का पठन करता चलता है और साथ-साथ कठिन शब्दों के अर्थ बताता चलता है। बाद
में शिक्षक वाक्यों के सरलार्थ बताता है एवं जहां कही आवश्यक होता है वहाँ भावों
को स्पष्ट करने के लिए व्याख्या भी कर देता है। इस विधि में सारा कार्य केवल
अध्यापक ही करता है, छात्रों को सोचने-विचारने
का कुछ मौका नहीं मिलता। अत: यह प्रणाली अमनोवैज्ञानिक है।
2. व्याख्या प्रणाली:- यह विधि अर्थ कथन विधि का
ही विकसित रूप है। इस प्रणाली में अध्यापक शब्दार्थ के साथ-साथ शब्दों और भावों की
व्याख्या भी करता है। वह शब्दों की व्युत्त्पति की चर्चा करता है, उनके पर्याय बताता है, उन पर्यायों में भेद करता
है। उपसर्ग प्रत्यय, सन्धि व समास की व्याख्या
करता है। शिक्षण सामग्री को स्पष्ट करने के लिए अनेक उदाहरण देता है एवं अपनी बात
के समर्थन में उद्धरण देता है। इस प्रणाली में अधिकांश कार्य स्वयं शिक्षक करता है, छात्र कम सक्रिय रहते हैं।
3. विश्लेषण प्रणाली: -इस प्रणाली को
प्रश्नोत्तर प्रणाली भी कहा जाता है। इस प्रणाली में अध्यापक शब्द एवं भावों की
व्याख्या के लिए प्रश्नोत्तर का सहारा लेता है, और छात्रों को स्वयं
सोचने और निर्णय निकालने के अवसर प्रदान करता है। इस विधि में अध्यापक बच्चों के
पूर्व ज्ञान के आधार पर नए ज्ञान का विकास करता है। इस विधि में छात्र एवं शिक्षक
दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। अत: प्रणाली उत्तम है।
4. समीक्षा प्रणाली:- यह प्रणाली उच्च कक्षाओं
में प्रयुक्त की जाती है। इस विधि में गद्य के तत्त्वों का विश्लेषण कर उसके
गुण-दोष परखे जाते हैं। गद्य शिक्षण प्रणाली का मुख्य उद्देश्य भाषायी ज्ञान एवं
कौशल में वृद्धि करना है और उनकी वृद्धि के लिए शिक्षक संदर्भ ग्रंथ एवं रचनाओं के
बारे में भी बताता है, जिनका अध्ययन कर छात्र
पाठ्य-वस्तु के गुण-दोषों का विवेचन कर सकें। इस विधि में छात्रों का स्वयं काफी
कार्य करना पड़ता है, यह विधि बच्चों में
स्वाध् याय की आदत विकसित करने में विशेष रूप से सहायक होती है।
5. संयुक्त प्रणाली: - माध्यमिक स्तर पर इन
सभी प्रणालियों का आवश्यकतानुसार मिश्रित रूप से प्रयोग करके हम गद्य शिक्षण को
प्रभावशाली बना सकते हैं। भाषायी कौशल एवं ज्ञान प्रदान करने के लिए व्याख्या एवं
विश्लेषण-प्रणाली को संयुक्त रूप से अपनाया जाये। इस संयुक्त प्रणाली के माध्यम से
गद्य पाठों की शिक्षा रोचक, आकर्षक एवं प्रभावशाली
ढ़ंग से दी जा सकेगी।
पद्य शिक्षण
हिन्दी
में काव्य, पद्य और कविता के
पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग किए जाते हैं, पर इनमें थोड़ा भेद होता है। काव्य शब्द
संस्कृत भाषा का अपना शब्द है और उसमें इस शब्द का प्रयोग साहित्य के लिए होता है
संस्कृत में साहित्य के दो भेद किए गए है- पद्य काव्य और गद्य काव्य/पद्य का अर्थ
छन्दोबद्ध रचना से होता है। पद्य से कविता उस अर्थ में भिन्न होती है कि कविता
छन्दोबद्ध हो सकती है और छन्द रहित भी। एक अन्य काव्य भी है जिसे ‘चम्पू’ काव्य कहते हैं। इस में गद्य और पद्य दोनों
शामिल होते हैं।
पद्य का अर्थ एवं
परिभाषा
मनुष्य संवेदनशील एवं चेतना सम्पन्न प्राणी है।
इसका मन प्रकृति में प्रतिफल होने वाले सौम्य, मनोरम एवं विकराल परिवर्तनों से भी भाव ग्रहण
करता है, आस-पास होने वाले दु:ख-सुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा, दया-क्रोध से चलायमान रहता है। मनुष्य की इसी
प्रवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञान एवं आनन्द के उस भण्डार का सृजन, संचय एवं संवर्द्धन होता रहा है। जिसे साहित्य
कहते हैं। उसी साहित्य का एक अंग कविता है। सुख-दु:ख की भावावेशमयी अवस्था का
स्वर-साधना के उपयुक्त पदों में प्रकाशन ही पद्य है।
पद्य को अनेक
भारतीय एवं पश्चिमी विद्वानों ने परिभाषित करने का प्रयास किया है।
आचार्य कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यजीवितम्’ कहकर पद्य को परिभाषित किया है, वहीं दूसरी तरफ आचार्य वामन ने रीतिरात्मा
काव्यस्य’ कहकर अर्थात् रीति के अनुसार रचना ही काव्य है, आचार्य विश्वनाथ ‘वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्’ अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है, कह कर परिभाषित किया है। आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल के अनुसार “जिस प्रकार आत्मा
की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की
वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे पद्य कहते है।” मैथ्यू आर्नोल्ड के अनुसार- “कविता के मूल में जीवन की आलोचना है।” शैले के मतानुसर “कविता कल्पना की अभिव्यक्ति है।”
उपर्युक्त परिभाषाएं हिन्दी पद्य के स्वरूप को
स्पष्ट करती है, उसमें छन्द व
अलंकार पर बल नहीं दिया है, केवल एक बात पर बल
दिया गया है, वह अभिव्यक्ति की
हृदयस्पश्री प्रभावोत्पादकता
पर जिससे यथाभाव की गूढ़तम अनुभूति हो सके। पद्य का मुख्य लक्षण है।
पद्य के तत्त्व
पद्य के अर्थ एवं
परिभाषा के बारे में जाने के पश्चात् यह अनिवार्य हो जाता है कि आप पद्य के
तत्त्वों के बारे में जानकारी ग्रहण करें।
पद्य भाव प्रधान के माध्यम से मनुष्य अपनी
हृदयगत अनुभूतियों को व्यक्त करता है, कविता के द्वारा जिन विचार, भाव, नीति, रस की अभिव्यक्ति होती है, वह पद्य का भाव तत्व कहलाता है। जिसे अनुभूति
तत्व भी कहते है। पद्य के माध्यम से अभिव्यक्त विचार एवं भावों की गूढ़तम अनुभूति
तभी सम्भव है, जब पद्य की
भाषा-शैली उपयुक्त हो, भाव विशेष की
अभिव्यक्ति के लिए छन्द-विशेष का चयन किया गया है। पद्य में कल्पना का योग आवश्यक
है। कल्पना के योगय से अलंकार योजना, प्रस्तुत-अप्रस्तुत, मूर्त-अमूर्त, जड़-चेतन के विधान से पद्य शब्द योजना
शब्द-शक्ति छन्द अलंकार प्रस्तुत-अप्रस्तुत मूर्त-अमूर्त जड़-चेतन कामिनी में चार
चाँद लग जाते हैं। अत: यह सब पद्य का कला तत्त्व कहलाता है, कला तत्त्व को अभिव्यक्ति तत्त्व भी कहते हैं।
जिस पद्य में भाव तत्त्व व कला तत्त्व का जितना अधिक, पर समुचित योग होता है, वह कविता उतनी ही अच्छी होती है।
अर्थानुभूति, भावानुभूति, सौन्दर्यानुभूति, रसानुभूति परमानन्दानुभूति ये पांच सोपान पद्य
शिक्षण में पाये गए है। प्रथम दो सोपान अर्थानुभूति, भावानुभूति जिनका सम्बन्ध केवल बोध पाठ से है।
अन्तिम तीन सोपान रसपाठ से जुड़े हैं। कविता में प्रयुक्त शब्दार्थ छन्द, अलंकार की व्याख्या, पद्य का बोध पाठ है छात्रों में बोध-पाठ की
योग्यता विकसित किए बिना हम रस-पाठ की ओर अग्रसर नहीं हो सकते।
पद्य की शिक्षण की
विधियाँ
पद्य पढ़ाने की अनेक विधियाँ प्रचलन में है।
शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए छात्रों के मानसिक एवं बौद्धिक
स्तरानुरूप किसी भी प्रणाली को अपना सकता है। यह प्रणाली है-
Ø गीत प्रणाली
Ø अभिनय प्रणाली
Ø व्याख्या प्रणाली
Ø शब्दार्थ
Ø खण्डान्वय प्रणाली
Ø व्यास प्रणाली
Ø तुलना प्रणाली
Ø समीक्षा प्रणाली
Ø रसास्वादन प्रणाली
गीत प्रणाली
संगीत सभी को अच्छा लगता है। निर्झरों में
कल-कल की ध्वनि से बहता जल, प्रकृति की सुरम्य
एवं मनोरम, वादियों की गोद, मन्द-मन्द गति से चलने वाली समीर सभी को सहज
आकर्षित करती है। बच्चे भी जन्म से गीत प्रिय होते हैं। अगर इन गीतों का प्रयोग
शिक्षा में किया जाये तो शिक्षा सरल, सरस, सहज ग्राह्य, रूचिकर हो जाती है। शिक्षक कक्षा में गीत का
सस्वर वाचन करता है तथा छात्र शिक्षक के वाचन के पीछे-पीछे उसे स्वर वाचन में लय, ताल गति-यति के साथ प्रस्तुत करते हैं।
यह प्रणाली छोटी कक्षाओं के लिए बड़ी ही आकर्षक
एवं उपयोगी है। शिशु खेल-खेल में गा-गाकर बहुत सारी उपयोगी बातें सीख जाते हैं।
अत: यह विधि मनोवैज्ञानिक है। लेकिन गीत सरल एवं आकर्षक होना चाहिए-
जैसे-
“मछली जल की रानी है,
जीवन उस का पानी
है।
हाथ लगाओ डर
जायेगी,
बाहर निकालो मर
जायेगी।”
यह बालोचित तुकबन्दी
ही बालक को सहज आकर्षित करती है।
अभिनय प्रणाली
इस प्रणाली में गीतों के साथ-साथ अभिनय भी किया
जाता है। यह बालोचित गीत या तुकबन्दी अभिनय प्रधान होती है।
जैसे-
राहुल - “माँ कह एक कहानी
यशोधरा - समझ लिया
क्या बेटा तुने
मुझको अपनी नानी।”
इस गीत में राहुल एवं यशेधरा द्वारा कथित
सामग्री का अभिनय प्रस्तुत करा-कर उसको छात्रों के प्रत्यक्ष रूप से दर्शाया जा
सकता है।
अत: छोटी कक्षाओं में यह प्रणाली उपयोगी है। पर
गीत सरल, आसान एवं अभिनय योग्य हो, तभी यह विधि प्रयुक्त की जा सकती है।
अर्थ कथन प्रणाली
आजकल विद्यालयों में इस प्रणाली का अधिक प्रचलन
है, इसी प्रणाली के सहारे शिक्षक पद्य का स्वयं
वाचन करते हुए, स्वयं उनका अर्थ
बताते हुए चलता है। इस प्रणाली में छात्र केवल श्रोता है। यह प्रणाली अर्थ तो समझा
देती है, लेकिन भावानुभूति एवं रसानुभूति नहीं करवा
पाती। जोकि पद्य शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है। अत: यह प्रणाली मनोवैज्ञानिक नहीं
है।
व्याख्या प्रणाली
इस प्रणाली में अध्यापक स्वयं या छात्रों से
कविता का सस्वर वाचन करवा लेता है। परन्तु शब्दार्थ बताते हुए, प्रासंगित कथाओं की चर्चा करते हुए, छन्द अलंकार आदि की चर्चा करता है। इस प्रणाली
के माध्यम से शिक्षक छात्रों व कवि के बीच रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश
करता है। यह प्रणाली उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लिए उपयोगी है, छोटी कक्षाओं के लिए नहीं। इस प्रणाली में
छात्र निष्क्रिय है, शिक्षक ही सक्रिय
है। अत: यह प्रणाली मनोविज्ञान की तुलना पर खरी नहीं उतरती।
खण्डान्वय प्रणाली
यह प्रणाली महाकाव्यों और लम्बी कविताओं के लिए
उपयोगी है। क्योंकि इस विधि में सम्पूर्ण पाठ का खण्डान्वय कर लिया जाता है। इस
प्रणाली में शिक्षक ही सक्रिय है। इस प्रणाली का दूसरा नाम प्रश्नोत्तर प्रणाली भी
है, इसमें प्रश्नोत्तर के माध्यम से छात्रों को
पढ़ाया जाता है। परन्तु यह विधि मनोवैज्ञानिक नहीं है।
व्यास प्रणाली
यह प्रणाली व्याख्या प्रणाली का विस्तृत रूप
है। कथावाचक (व्यास) जब कथा बाँचते हैं, जब भावों, विचारों, नीतियों को स्पष्ट करने के लिए मुख्य कथा के साथ-साथ
कई (गौण कथा) अन्तर्कथाओं का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अन्तर्कथाओं के उदाहरणों से, व्याख्याओं से कथा में नवजीवनी का संचार करते
हैं। छात्रों के बौद्धिक स्तर, मानसिक स्तर
अभिरूचि क्षमता को देखते हुए भी यह प्रणाली उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लिए उपयोगी
है।
तुलना प्रणाली
इस विधि में शिक्षक पाठ्य-कविता की तुलना उसी
भाव को व्यक्त करने वाली अन्य कविताओं के साथ करके पाठ्य-कविता के भावार्थों को
स्पष्ट करने का प्रयास करता है। तुलना निम्न प्रकार से की जा सकती है-
जैसे- राष्ट्रीय कवि, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद निराला आदि कवि की कविताओं का
तुलनात्मक अध्ययन करूणा एवं वेदना के लिए महादेवी वर्मा की ही रचनाओं का तुलनात्मक
अध्ययन। व्यास विधि की तरह तुलना प्रणाली भी उपयोगी है परन्तु अध्यापक का ज्ञान
गहन, गम्भीर एवं गहरा हो समान भावों वाली, भाषा-शैली वाली तत्सम्बन्धी अनेक पद्य रचनाएं
कण्ठस्थ हो, वहीं न्याय कर
सकता है।
समीक्षा प्रणाली
यह प्रणाली उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के छात्रों
के लिए हितकारी है। उच्च श्रेणी तक पहुँचते-पहुँचते छात्रों का मानसिक एवं बौद्धिक
विकास पर्याप्त रूप से हो चुका होता है साथ ही काव्य के तत्त्वों का ज्ञान भी वे
ग्रहण कर चुके होते हैं। इस प्रणाली में काव्य के गुण-दोषों का विवेचना करके उनके
यथार्थ को आँका जाता है।
इस प्रणाली में शिक्षक केवल सहायक का ही कार्य
करता है, वह पुस्तकों के नाम, संदर्भ-ग्रंथों के नाम एवं कुछ तथ्यों से
छात्रों को परिचित करा देते हैं। इस प्रणाली में तीन तथ्यों की समीक्षा की जाती
है- भाषा की समीक्षा, काव्यगत भावों की
समीक्षा, कविता पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा। यह
प्रणाली मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि छात्र
इसमें स्वयं सक्रिय है।
रसास्वादन प्रणाली
इस प्रणाली में शिक्षक का उद्देश्य छात्रों को
कविता का अर्थ बलताना नहीं होता वरन् वह छात्रों को कविता का आनन्द लेने की क्षमता
प्रदान करता है। शिक्षक कवि के परिचय, विशेष प्रसंग, प्रेरक स्थल, अति आवश्यक व्याख्या आदि की तरफ छात्रों का
ध्यान आकृष्ट करते हुए छात्रों को रसानुभूति की प्रबल पे्ररणा देता है, वह छात्रों का कवि के साथ तादात्मय स्थापित
करता है। यह विधि केवल बड़ी कक्षाओं में ही सम्भव है।
कौन सी शिक्षण प्रणाली किस स्तर पर अपनाए
वैसे तो हमने साथ-साथ प्रत्येक शिक्षण प्रणाली
की उपयोगिता-अनुपयोगिता स्पष्ट कर दी है। प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में जहाँ
बच्चों को बालोचित गीतों को रटाना होता है, वहां गीत एवं अभिनय प्रणाली दोनों का ही प्रयोग
किया जाए। कक्षा चार से आठ तक अर्थ बोध एवं व्याख्या प्रणाली को अपनाये जाए। कक्षा
नौ से बारह तक व्यास प्रणाली, प्रश्नोत्तर
प्रणाली, तुलना प्रणाली, समीक्षा प्रणाली आदि छात्रों के मानसिक एवं
बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखकर पढ़ाई जाए साथ-साथ कविता में निहित विचारों एवं
भावों का बोध कराया जाये तो फिर क्रमश: रसानुभूति सौन्दर्यानुभूति परमानन्दानुभूति
की ओर बढ़ाना चाहिए। यदि कविता शिक्षण द्वारा हम बच्चों की रूचि और अभिवृत्तियों
को सामाजिक आदर्शोनुकूल विकसित कर सके तो, पद्य शिक्षण सार्थक समझिए।
पद्य -शिक्षण के सोपान
प्यारे छात्रों अभी आप ने कविता की
शिक्षण-विधियों के बारे में जाना, साथ ही जरूरी हो
जाता है कि पद्य शिक्षण के लिए कौन-कौन से सोपान है। साहित्य की विधाएँ गद्य व पद्य
शिक्षण के लिए निम्न सोपानों को अपनाया जाता है।
प्रस्तावना
Ø कवि परिचय द्वारा
इस प्रणाली में कवि का जीवन वृत्त बता दिया जाता है। साथ ही उन परिस्थितियों का
उल्लेख किया जाता है जिससे कवि को कविता लिखने की प्रेरणा मिली हो।
Ø पूर्व सूचना
देकर-इस विधि में छात्रों को पहले ही सूचित कर दिया जाता है कि आज हम जिस कविता को
पढेंगे उसमें अमुक रस एवं अलंकारों का निर्वाह हुआ है।
Ø कविता के अनुकूल
वातावरण उत्पन्न करके: कक्षा में अध्यापक चित्र, प्रश्नों आदि के द्वारा, प्राकृतिक दृश्य यथा झरनों के बहने की कल-कल
ध्वनि, पर्वतों की विशालता आदि का चित्रण कक्षा में
उपस्थित करके विषय को रोचक एवं ग्राह्य बना सकता है।
Ø प्रश्नोत्तर
द्वारा: अधिकांश अध्यापक तो प्रश्नोत्तर के माध्यम से बच्चों को कविता पढ़ने के
लिए तैयार करते हैं।
Ø सारांश प्रणाली:
इस शिक्षण सोपान में अध्यापक कक्षा में सारांश को प्रसंग सहित बता देता है।
कहीं-कहीं इस प्रणाली का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। कुछ कविताएँ ऐसी होती हैं
जिनके पढ़ने से पहले यदि कुछ न कहा जाए तो उन्हें समझने में कठिनाई होती है।
Ø उसी कविता के
द्वारा: कई बार उसी कविता के सस्वर वाचन से प्रस्तावना की जाती है
Ø समानान्तर कविता
के द्वारा: प्रस्तावना के लिए समानान्तर कविता की पंक्तियां भी प्रयुक्त की जा
सकती है। ध्यातव्य है कि पढ़ी हुई कवितओं की पंक्तियाँ ही सुनाई जाये।
उद्देश्य कथन
प्रस्तावना के माध्यम से मूल विषय की तरफ
आकर्षित करने के पश्चात् अध्यापक अपने उद्देश्य की घोषणा करता है। अत: अध्यापक को
रूचि पूर्ण तरीके से उद्देश्य की घोषणा करनी चाहिए।
प्रस्तुति:-
कविता शिक्षण का अगला सोपान ‘प्रस्तुतीकरण’ है। इसके अन्तर्गत मूल शिक्षण-सामग्री पढ़ाई
जाती है।
Ø आदर्श पठन: कविता शिक्षण का
महत्त्वपूर्ण भाग आदर्श पठन है। कक्षा चाहे कोई भी हो, शिक्षक कविता सस्वर वाचन गति-यति, आरोह-अवरोह को ध्यान में रखते हुए करें।
Ø अनुकरण वाचन (पठन): शिक्षक के
आदर्श वाचन के बाद छात्रों से अनुकरण वाचन करवाया जाये। छात्रों का उच्चारण
सम्बन्धी संशोधन भी कविता पाठ के बाद यथा सम्भव छात्रों की सहायता से कराया जाये।
Ø शब्दार्थ कथन एवं
विचार विश्लेषण: कविता में आये कठिन शब्दार्थ बताते हुए शिक्षक
प्रयत्नशील रहता है कि उन्हीं शब्दों के अर्थों को समझाया जाये जो कविता के भाव
एवं सौन्दर्य को निखारते हो। कविता को अच्छी प्रकार से समझाने के लिए
विचार-विश्लेषण या प्रश्नोत्तर आमंत्रित भी किए जाते है।
Ø सौन्दर्यानुभूति: पद्य
आनन्दानुभूति का विषय है। साथ ही वह ज्ञानवर्द्धन का विषय भी है। यदि पद्य -शिक्षण
से छात्रों को आनन्द की अनुभूति होती है, तो उसे सफल मानना चाहिए। आनन्दानुभूति के लिए
अर्थानुभूति एवं भावानुभूति आवश्यक है, क्योंकि भाव ही कविता की आत्मा है। अर्थानुभूति
और भावानुभूति के अभाव में कविता के संगीत पक्ष का आनन्द तो लिया जा सकता है
परन्तु उसकी आत्मा अर्थ अथवा भाव का नहीं।पर कविता के भाव पक्ष की पूर्ण अनुभूति
तब तक नहीं की जा सकती, जब तक उसके भाव
स्पष्ट करने वाले कला-पक्ष की अनुभूति न की जा सके। कविता के कला-पक्ष में शब्द
योजना (प्रतीकात्मक, ध्वन्यात्मक, लाक्षणिक) शैली (छन्द, अलंकार) और कल्पना (प्रस्तुत-अप्रस्तुत, मूर्त-अमूर्त एवं जड़-चेतन) आदि की मुख्य रूप
से व्याख्या होनी चाहिए।
Ø द्वितीय आदर्श
पठन: पद्य के अर्थ एवं भाव विश्लेषण के पश्चात्
उन्हें पूर्ण रसास्वादन कराने के लिए शिक्षक को भावानुसार सस्वर पठन करना चाहिए।
Ø पुन: अनुकरण वाचन: यह जानने के लिए
कि छात्रों ने पद्य के सौन्दर्य को कहाँ तक ग्रहण किया है, छात्रों से अनुकरण पठन करवाना चाहिए।
पद्य में अभिरूचि जागृत करना
किसी कार्य करने के लिए, उसके अच्छे परिणाम के लिए रूचि का होना
अनिवार्य है। अत: हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि बच्चों की काव्य में रूचि
उत्पé करने के लिए हम किन-किन साधनों को अपना सकते
हैं। कविता का मानव-मानव मन व हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है, वह मानव-मन को झकृंत करती है, अपनी संगीतात्मकता के कारण निम्न साधनों से हम
कविता में छात्रों की रूचि जागृत कर सकते हैं।
Ø प्रभावशाली पठन: पद्य
श्रव्य-काव्य है, जितना आनन्द कविता
का श्रवण साधन से किया जा सकता है, उतना किसी अन्य साधन से नहीं बशर्ते कविता का
प्रभावशाली पठन किया जाए। अध्यापक का कण्ठ भी पठन के उपयुक्त हो तो सोने में
सुहागा है। प्रभावशाली एवं सस्वर पठन से छात्रों की काव्य में अभिरूचि जागृत होती
है।
Ø कविता कंठस्थ
करना: अध्यापकों को चाहिए कि वे छात्रों को अधिक से
अधिक कविताएँ कंठस्थ करने के लिए प्रेरित करें। बच्चे कंठस्थ कविताओं के सहारे
अपनी बात को प्रभावशाली ढ़ंग से कहने में सफल होते हैं, तो उन्हें प्रसéता होती है, और उन्हें अधिक कविताएं कंठस्थ करने के लिए
प्रेरणा मिलती है।
Ø कविता संग्रह: बच्चों की कविता
में रूचि जागृत करने का अन्य उपाय है कविताओं का संग्रह कराना। बच्चों में कविता
संग्रह की भावना पैदा होगी तभी साहित्य से जुड़ी सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक व नैतिकता के बारे में सीख सकेंगे।
Ø कवि जयन्ती: हिन्दी अध्यापक
को चाहिए कि वह अपने विद्यालय कार्यक्रमों में कवि जयन्ती का आयोजन कर कवि के जीवन
पर प्रकाश डाल कर साहित्य से बच्चों को रूबरू करवा सकता है।
Ø कवि दरबार: अतीत को वर्तमान
में उपस्थित करने का तथा छात्रों का कविता में रूझान पैदा करने की यह अच्छी विधि
है, कि विद्यालय में कवि दरबार आयोजित किये जाए।
छात्र किसी युग-विशेष के कवियों की वेशभूषा से सुसज्जित होकर अभिनय के साथ उनकी
रचनाओं को पढ़कर सुनाये।
Ø कवि समादर: समय-समय पर
आस-पास के कवियों को आमंत्रित करके उनका आदर करना कविता में रूचि पैदा करने का एक
अन्य तरीका है।
Ø कवि गोष्ठी: स्कूलों में
साहित्य-परिषदों द्वारा कवि गोष्ठियों का आयोजन किया जाए। इसमें छात्र कवियों की
जीवनी एवं उनकी विशेषता का ही वर्णन करें।
Ø कवि सम्मेलन: कवि सम्मेलनों का
आयोजन भी कविता में रूचि जागृत करने में सफल होते हैं। इन कवि सम्मेलनों में हम
नगर विशेष के कवि बुलाए, जिले के कवि बुलाए, प्रांत के कवि बुलाए। यह विद्यालय पर निर्भर
करता है।
Ø कविता
प्रतियोगिता: कविता में रूचि जागृत करने का यह अच्छा माध्यम
है। विद्यालय में साहित्यिक कार्यक्रमों के तहत कविता प्रतियोगिता आयोजित की जा
सकती है। यह प्रतियोगिताएं निम्न प्रकार से आयोजित की जा सकती है। 1. निश्चित विषय पर कविता पठन 2. अन्त्याक्षरी 3.सुभाषित प्रतियोगिता
Ø विभिन्न अवसरों पर
कविता पाठ: विद्यालय में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जैसे
किसी महापुरूष का जन्म दिन कोई त्यौहार, आदि ऐसे अवसरों पर कविताओं का सस्वर पाठ आयोजित
किया जा सकता है।
व्याकरण शिक्षण
व्याकरण
वह शास्त्र है जो भाषा से संबंधित नियमों का ज्ञान करता है। किसी भी भाषा की
संरचना का सिद्धांत अथवा नियम ही उसका व्याकरण है। यदि नियमों द्वारा भाषा को
स्थित न रखा जाए तो उसकी उपादेयता, महत्ता तथा स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा। अत: भाषा
के शीघ्र परिवर्तन को रोकने के लिए ही व्याकरण का उस पर नियन्त्रण कर दिया गया है।
भाषा यदि साध्य है तो व्याकरण उसका साधन है। व्याकरण भाषा का अनुशासन मात्र ही
करता है, शासन नहीं। वह भाषा सृजन उसका साधन है। व्याकरण
भाषा का सृजन नहीं। परिषकार करता है।
व्याकरण का अर्थ
व्याकरण का अर्थ है व्यांक्रियन्ते।
व्याकरण के द्वारा किसी भी विषय को स्पषट रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है।
व्याकरण किसी विषय को भाली प्रकार से समझने के लिए किया जाता है। जो विषय छात्रों
की समझ से बाहर होता है उसका व्याकरा के माध्यम से सीखा जाना अति लाभदायक सिद्ध
होता है। व्याकरण भाषा का ही एक रूप है। व्याकरण को भाषा न कहकर भाषा का ही एक
स्वरूप कहा जाता है। यह भाषा शासक के रूप में बल्कि अनुशासक के रूप में हिन्दी
शिक्षण कला में प्रयुक्त की जाती हैं।
व्याकरण की परिभाषा
Ø पंतजलि के अनुसार- ‘‘महाभाषय में व्याकरण (शब्दानुशासन) कहा है।’’
Ø डॉ. स्वीट के
अनुसार- ‘‘व्याकरण भाषा का
व्यवहारिक विश्लेषण अथवा उसका शरीर विज्ञान है।’’
Ø जैगर के अनुसार- ‘‘प्रचलित भाषा संबंधी नियमों की व्याख्या ही व्याकरण
है।’’
व्याकरण की विशेषताएँ
Ø व्याकरण भाषा की
शुद्धता का साधन है साध्य नही।
Ø व्याकरण भाषा का
अंगरक्षक तथा अनुशासक है।
Ø व्याकरण वास्तव
में ‘शब्दानुशासन’ ही है।
Ø व्याकरण भाषा के
स्वरूप की सार्थक व्यवस्था करता है।
Ø व्याकरण भाषा का
शरीर विज्ञान है तथा व्यावहारिक विश्लेषण करता है।
Ø गद्य साहित्य का
आधार व्याकरण है।
Ø भाषा की पूर्णता
के लिए-पढ़ना, लिखना, बोलना तथा सुनना चारों कौशलों की शुद्धता
व्याकरण के नियमों से आती हैं।
Ø भाषा की
मितव्ययिता भी व्याकरण से होती है।
Ø वाक्य की संरचना
शुद्धता उस भाषा के व्याकरण से आती है।
Ø व्याकरण से नवीन
भाषा को सीखने में सरलता एवं सुगमता होती है।
व्याकरण शिक्षण की आवश्यकता
व्याकरण की शिक्षा, भाषा-शिक्षण का अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग
है। व्याकरण भाषा का दिशा निर्देशन करता है और उसे सरलता से अपेक्षित लक्ष्य तक
पहुँचाता है।
व्याकरण के नियमों का ज्ञान, छात्रों में ‘मौलिक’ वाक्य संरचना की योग्यता का विकास करता है।
भाषा की मितण्ययिता के आधार हेतु व्याकरण के नियमों का ज्ञान आावश्यक है। छात्रों
में भाषा शुद्ध, लिखने, बोलने के कौशल का विकास करती है।
भाषा का शुद्ध रूप पहचानने में छात्रों को
सक्षम बनाना ही व्याकरण का मुख्य उद्देश्य है। व्याकरण-शिक्षा से मातृभाषा के
प्रयोग-लिखने, बोलने में शुद्धता
आती है। मातृभाषा में व्याकरण के उपयोग से शुद्ध एवं स्पषट व्यवहार आता है। शुद्ध
सम्प्रेषण व्याकरण के उपयोग पर निर्भर होता है।
भावों की स्पषटता भाषा पर निर्भर है और भाषा की
शुद्धता व्याकरण पर। व्याकरण भाषा का संगठन करता है। व्याकरण की जानकारी के बिना
भाषा शुद्ध नहीं हो सकती। इसी कारण व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है।
व्याकरण के प्रकार
आज ज्ञान के क्षेत्र में विस्फोट हो रहा है।
समस्त अध्ययन क्षेत्रों में ज्ञान में वृद्धि अधिक तीव्रता से हो रही है। इसका
प्रभाव व्याकरण के ज्ञान पर भी हुआ है। भाषा वैज्ञानिक ‘चौमस्की’ में एक नवीन व्याकरण का विकास किया है जिसे’व्यावहारिक व्याकरण’ की संज्ञा दी जाती है इस प्रकार के व्याकरण में
नियमों के अनुसरण की अपेक्षा ‘व्यवहारिकता’ अथवा प्रचलन को विशेष महत्व दिया है।
शास्त्रीय या सैद्धांन्तिक व्याकरण
विद्वानो ने वाक्य संरचना, ध्वनि, स्वर आदि के व्याकरण के नियमों एवं सिद्धांतों
की रचना की है उनका ज्ञान छात्रों को दिया जाता है। तथा छात्रों को भी अवसर देते
है वे भी वाक्य संरचना में उनका प्रयोग करें तथा वाक्य की संरचना में घटकों-कर्ता, क्रिया, कर्म, विशेषण, संज्ञा सर्वनाम, क्रिया-विशेषण की पहिचान करे। व्याकरण के
नियमों को विशेष महत्व दिया जाता है। इसमें भाषा की शुद्धता को प्राथमिकता दी जाती
हैं
प्रासंगिक व्याकरण
इस प्रकार के व्याकरण में शुद्ध स्पषट
अभिव्यक्ति पर अधिक बल दिया जाता है। इसमें भाषा की दृषिट से अशुद्धियाँ रहती है
परन्तु अपेक्षाकृत कम रहती है। गद्य साहित्य में कहानीकार अपितु सम्प्रेषण की
प्रभावशीलता एवं अभिव्यक्ति पर विशेष ध्यान देते है।
व्याकरण की विभिन्न इकाईयों का अध्ययन
उपसर्ग एवं
प्रत्यय :- उपसर्ग एवं प्रत्यय किसी शब्द के आगे व पीछे
जुड़कर शब्द को नया रूप व अर्थ प्रदान करते है। विद्यार्थियों को इसका अध्ययन रोचक
ढंग से कराने के लिए विभिन्न नए प्रकार के शबदों का ज्ञान आवश्यक है। साधारणत: यह
अत्:यंत सरल होते है।
संज्ञा व सर्वनाम
:-
हिन्दी शब्दों की रचना में संज्ञा एवं सर्वनाम को सम्मिलित किया जाता है। किसी
व्यक्ति, स्थान, वस्तु या भाव का बोध कराने वाले शबदों को
संज्ञा कहते है। और संज्ञा के बदले में आने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते है।
सर्वनाम का शाब्दिक अर्थ है- ‘सबका नाम’। विद्याथ्र्ाीयों को इसका ज्ञान माध्यमिक
कक्षाओं से ही कराया जाता है। इसका विस्तृत वर्णन उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं तक
पूर्ण हो जाता है।
क्रिया, विशेषण, कारक :- जिन वाक्यों अथवा
शब्दों का प्रयोग संज्ञा एवं सर्वनाम के स्ािान पपर किया जाता है उनको क्रिया कहते
है। क्रिया संज्ञा एवं सर्वनाम में होने वाले कार्य को स्पषट करने का एक बहुत
महत्वपूर्ण साधन होता है। इसके द्वारा कार्य का ज्ञान होता है। क्रिया से बनने
वाले वर्णो का ज्ञान छात्रों को कराया जाना चाहिए। किस प्रकार क्रिया से वर्णों की
उत्पत्ति की जा सकती है।संज्ञा एवं सर्वनाम को विशेषता बताने वाले शब्दों को
विशेषण कहते है इस स्तर के छात्रों को शिक्षकों के द्वारा विशेषण का प्रयोग, विशेषणों की रूप-रचना, विशेषणों की पुनरूक्ति, विशेषणों के संबिंध में सभी जानकारी प्राप्त हो
जाती है और वह विशेष का प्रयाकग करना भी सीख जाता है। गंद्याशों में प्रयुक्त होने
वाली विशेषणों का भी छात्र स्वयं अपनी बुद्धि से छांटना प्रारंभ कर देते है।संज्ञा
या सर्वनाम के जिस रूप का सीधा संबंध क्रिया से होता है, उसे कारक कहते है। कारके के आठ भेद होते है।
कारक सूचित करने के लिए संज्ञा या सर्वनाम के साथ जो प्रत्यय लगते है उन्हें
विभिक्तियॉं कहते है। कारके विद्यार्थियों को वाक्य रचना करने व पहचानने में सहायक
होते है। इसे अभ्यास व प्रयोग से छात्र शब्द रचना को सीख सकते है।
समास :- समास का अर्थ है
- संक्षेपीकण। अर्थात् कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थो का प्रकट करना समास
का प्रयोजन है। जब दो या दो से अधिक शब्दों के मिलने पर, जो नया स्व्तंत्र पद बनता है। तो उस समस्त पद
को ‘समास’ कहते है। इसके भी अनेक रूप एवं भेद होते तै। इन
सभी का ज्ञान माध्यमिक एव उच्च माध्यमिक स्तर के बालकों कोकराया जाना अत्यंत
आवश्यक सिद्ध होता है। समास को हिन्दी भाषा में एक विशिषटता प्रदान की गई। उस
विशिषटता से अवगत कराने के लिए इस स्तर के बालकों को मानसिक स्तर अनुकूल होता है।
रस, छंद, अलंकार:- रस युक्त वाक्य
ही वगव्य है। इरस कविता का महत्वपूर्ण भग होते है। कविता की रचना करते समय कवि
रसों का पोषाण अपनी कविता में करते है। इन रसों के कारण ही कविता में छात्र रूचि
लेने लगते है। अत: कविता ज्ञान को सुगम बनाने के लिए छात्रों को रसों का ज्ञन
कराया जाना अत्यंत आवश्यक होता है।
पद्य में प्रयुक्त होने वाले वर्ण, मात्रा, गति यति, चरण आदि के संघटन को छंट कहते है। छन्दों के
द्वारा कविता का निर्माण किया जाता है बिहारी तथा अन्य कई कवियों ने अपनी-अपनी
कविताओं में छन्दों एवं दोहो का प्रयोग किया है। दोहों के विस्तृत स्वरूप को ही
छन्द कहा जाता है। यह रसों से पूर्ण होते है और इनको पढने में बहुत आनंद की
प्राप्ति होती है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उच्च एवं माध्यमिक स्तर के
विद्यार्थियों को छेंद का ज्ञापन कराया जाए। इससे वह सभी प्रकार के दोहों एवं
छंदों का अध्ययन करने में सक्षमता प्राप्त कर लेते है।
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले कारक, गुण, धर्म या तत्व को अलंकार कहते है। अलंकार शब्द
कदो शब्दों से मिल कर बना है - अलम्कार। अलम् का अर्थ है, भूषिात करना ‘कार’ का अर्थ है करने वाला। इस प्रकार जो भूषिात करे
वह अलंकार कहलाता है। जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषाणों से शीरीर की शोभा बढ़ती
है- उसी प्राकर जिन उपकरणों से काव्य की सुंदरता मे अभिवृद्धि होती है उसे अंलकार
कहते है। इस प्रकार शब्द और अर्थ की शोभा बढ़ाने वाले तत्व को अलंकार कहते है।
अंलकार भी कविता में प्रयुक्त होने वाली एक आवश्यक सामग्री है। अत: कविता के सुगम
पठन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि छात्रों को अंलकारों का ज्ञान कराया जाए।
अंलकारों का अध्ययन करने में छात्रों को कविता में प्रयुक्त होने वाले अंलकारों की
जानकारी हो जाती है और वे कविता को समझने में सुगमता अनुभव करते है।
पर्यायवाची विलोम
शब्द :- ये पर्यायवाची शब्द एक ही अर्थ के घ्ज्ञोतक होते
है समान अर्थ वाले इन शब्दों का अर्थ होता है (पर्याय) बदले में आने वाला शबद, इसे प्रतिशब्द भी कहते है। पर्यायवाची शब्दों
के माध्यम से विद्यार्थियों को शबद का ज्ञान होता है व पर्याय को समझने में सार्थक
होते है और धीरे-धीरे अभ्यास के माध्यम से उनके शब्द ज्ञान में वृद्धि होती है।
हिन्दी में विरोधी शब्द के कई पर्याय प्रचलित है जैसे- विलोम,य प्रतिलोम, विरूद्वाथ्र्ाी, निषोधात्मक, विपरीतार्थक आदि, अर्थ के धरातल पर विलोम शब्द ठीक-ठीक विरोधी
अर्थ को व्यंजित करते है। विलोम शब्द को लिखना अत्यंत सरल है तथा विद्यार्थियों को
समझाना भी सरल है। इससे विद्यार्थियों को शब्द भंडार की ज्ञानात्मक वृद्धि होती है
। वह शब्द के प्रयोग को अभ्यास के माध्यम से समझ पाते है।
मुहावरे व
लोकोक्ति:- मुहावरा ऐसा वाक्यांश है जो सामन्य अर्थ का
बोध कराकर किसी विलक्षण (विशेष) अर्थ का बोध कराता है मुहावरे के माध्यम से
विद्यार्थियों को भाषा संपे्रषाण का ज्ञान होता है उनकी भाषा मे सरलता आती है
मुहावरे का प्रयोग उनकी भाषा में ज्ञान के स्तर को बढ़ाता है।
लोकोक्ति (कहावत) आने में एक स्वतंत्र अर्थ
रखने वाली लोक प्रचलित उक्ति है। जिसका प्रयोग किसी को शिक्षा देने, चेतावनी देने या व्यंग्य करने उलाहना देने के
लिए होता हैै। यह अपनी संक्षिप्त एवं चटपटी शैली में प्रयुक्त होती है। लोकोक्ति
हिन्दी भाषा को एक नवीन रूप प्रदान करती है। विद्यार्थियों को रोचक उदाहरण का
प्रयोग कर लोकाक्ति का अभ्यास कराया जा सकता है। जिससे उन्हें व्याकरणिक ज्ञान
प्राप्त होता है।
great post ,bhut hi ache dhang se samjhaya hai 🙏
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