हिंदी शिक्षण

हिंदी शिक्षण

भाषा           भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। बोली। जबान। वाणी। विशेष इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैंपर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्यसेमेटिकहेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदोंउपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा हैऔर ब्रजभाषाअवधीबुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता हैऔर उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहींपर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया हैऔर इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों काप्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।
    सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण
विकासहमारी अस्मितासामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है । भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।
    इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं
पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्यसेमेटिकहेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदोंउपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा हैऔर ब्रजभाषाअवधीबुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता हैऔर उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहींपर फिर भी बहुत कुछ होता है।
    संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है
और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों काप्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।
    प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये
 लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपिभाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है।   उदाहरणार्थ पंजाबीगुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दीमराठीसंस्कृतनेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है।

भाषा का अर्थ एवं  परिभाषा
     भाषा शब्द संस्कृत के भाष् धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाय ।
    भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है। इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-
     डॉ. कामता प्रसाद गुरु : ‘भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों तक भलीभाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्पष्टतया समझ सकता है।
    आचार्य किशोरीदास : ‘विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्दसमूह ही भाषा हैजिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।’’
    डॉ. श्यामसुन्दर दास : ‘मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते हैं।
    डॉ. बाबूराम सक्सेना : ‘जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता हैउनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।
    डॉ. भोलानाथ : ‘भाषा उच्चारणावयवों से उच्चरित यादृच्छिक(arbitrary) ध्वनि-प्रतीकों की वह संचरनात्मक व्यवस्था हैजिसके द्वारा एक समाज-विशेष के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं ।
    रवीन्द्रनाथ : भाषा वागेन्द्रिय द्वारा नि:स्तृत उन ध्वनि प्रतीकों की संरचनात्मक व्यवस्था है जो अपनी मूल प्रकृति में यादृच्छिक एवं रूढ़िपरक होते हैं और जिनके द्वारा किसी भाषा-समुदाय के व्यक्ति अपने अनुभवों को व्यक्त करते हैंअपने विचारों को संप्रेषित करते हैं और अपनी सामाजिक अस्मितापद तथा अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
    महर्षि पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी महाभाष्य में भाषा की परिभाषा करते हुए कहा है- व्यक्ता वाचि वर्णां येषां त इमे व्यक्तवाच:।” जो वाणी से व्यक्त हो उसे भाषा की संज्ञा दी जाती है। दुनीचंद ने अपनी पुस्तक हिन्दी व्याकरण” में भाषा की परिभाषा करते हुए लिखा है - हम अपने मन के भाव प्रकट करने के लिए जिन सांकेतिक ध्वनियों का उच्चारण करते हैंउन्हें भाषा कहते हैं।
    डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए लिखा है - भाषा मुख से उच्चरित उस परम्परागत सार्थक एवं व्यक्त ध्वनि संकेतों की व्यक्ति को कहते हैंजिसकी सहायता से मानव आपस में विचार एवं भावों को आदान-प्रदान करते हैं तथा जिसको वे स्वेच्छानुसार अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं।
    डॉ. सरयू प्रसाद अग्रवाल के अनुसार - “भाषा वाणी द्वारा व्यक्त स्वच्छन्द प्रतीकों की वह रीतिबद्ध पद्धति है जिससे मानव समाज में अपने भावों का परस्पर आदान-प्रदान करते हुए एक-दूसरे को सहयोग देता है।
    श्री नलिनि मोहन सन्याल का कथन है - “अपने स्वर को विविध प्रकार से संयुक्त तथा विन्यस्त करने से उसके जो-जो आकार होते हैं उनका संकेतों के सदृश व्यवहार कर अपनी चिन्ताओं को तथा मनोभावों को जिस साधन से हम प्रकाशित करते हैंउस साधन को भाषा कहते हैं।
    डॉ. देवीशंकर द्विवेदी के मतानुसार - “भाषा यादृच्छिक वाक्प्रतीकों की वह व्यवस्था हैजिसके माध्यम से मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।
    प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है कि विचार और भाषआ में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं ।
    स्वीट के अनुसार ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है ।
    वेंद्रीय कहते हैं कि भाषा एक तरह का चिह्न है । चिह्न से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्यश्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है ।
    ब्लाक तथा ट्रेगर- भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह सहयोग करता है ।
   स्त्रुत्वा – भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं संपर्क करते हैं ।
    इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका - भाषा को यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तंत्र है जिसके द्वारा मानव प्राणि एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में एक सामाजिक समूह के सदस्य संपर्क एवं संप्रेषण करते हैं ।
 ‘‘भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति हैजिसके द्वारा मानव परम्परागत विचारों का आदान-प्रदान करता है।’’ स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है-
(१) भाषा एक पद्धति हैयानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन हैजिसमें कर्ताकर्मक्रिया,आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं ।
(२) भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैंउनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं ।
(३) भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत हैअर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है,वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं ।
(४) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है - ऐच्छिकअर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा ।
हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य हैठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। और भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक प्रतीक-स्थितिहै। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति-एक वह जो संबोधित करता है,दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता हैतीसरी संकेतित वस्तु और चौथी-प्रतीकात्मक संवाहक जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है ।
विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंगउनकी उच्चापण-प्रक्रियाशब्द-भंडारवाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं ।
भाषा की प्रकृति –
        भाषा परिवर्तनशील है- भाषा और उसकी इकाइयों में लगातार परिवर्तन का गुण सहज और स्वाभाविक है । कभी शब्द अपना रूप बदल लेता हैपर उसका अर्थ वही रहता है। इसी प्रकार कभी शब्द नहीं बदलता लेकिन उसके अर्थ में परिवर्तन आ जाता है। 
भाषा एक सामाजिक वस्तु है- सामाजिकता से स्पष्ट है कि कोई अकेला व्यकित किसी भाषा का व्यवहार नहीं कर सकता भिन्न-भिन्न समुदाय में ही उसका प्रयोग होता है। 
 भाषा अर्जित है- भाषा को व्यक्ति अपनी सामर्थ्य समाज-व्यवहार और आवश्यकता के आधर पर सीखता है । अत: वह अर्जित की जाती है। 
 भाषा अनुकरणमूलक है- परिवर्तन होते रहने के कारण समुदाय में भाषा एक-दूसरे के द्वारा अनुकरणीय है । उसका रूप अनुकरण के द्वारा ही अर्जित किया जा सकता है। 
 भाषा गतिशील है- भाषा की गतिमयता उसकी जीवन्तता का संकेत है । जैसे हिन्दी जीवन्त भाषा है किन्तु संस्कृत  भाषा में गतिशीलता न होने से जीवन्तता समाप्त हो चुकी है। 
 भाषा संरचनात्मक है- भाषा समय-समय पर अपने में नए-नए रूपोंऔर शब्दों को समाविष्ट करती है। इसे उसकी जातीय उत्पादकता या रचनात्मक क्षमता कहते हैं।      
 भाषा सहज होती है । भाषा सदा अपूर्ण रहती है ।
    निजता- प्रत्येक भाषा का प्रमुख और महत्त्वपूर्ण गुण है। हिन्दीसंस्क्रत और अंग्रेजी भाषा की व्याकरणिक प्रणालियाँ एक सी नहीं है । प्रत्येक भाषा में वचनों ((एकवचनबहुवचन)सर्वनाम भेदों,कारकचिन्होंपरसर्गो आदि का उपयोग अलग-अलग ढंग से होता है। इसी कारण हम कई  भाषाओं को अलग-अलग पहचान सकते हैं कि यह अंगेजी है या हिन्दी है या गुजरात राष्ट्र की गुजराती भाषा है। 
  मानकता- प्रत्येक भाषा का अपना विकसित सर्वमान्य स्वरूप होता है। प्रत्येक भाषा में शब्दों,वाक्यों और भाषा व्यवहारों का एक स्पष्ट अथवा मानकआदर्श रूप स्थापित होता है ।
भाषा की विशेषताएं
   जब हम भाषा का संदर्भ मानवीय भाषा से लेते हैं । तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि मानवीय भाषा की मूलभूत विशेषताएं या अभिलक्षण कौन-कौन से हैं । ये अभिलक्षण ही मानवीय भाषा को अन्य भाषिक संदर्भों से पृथक करते हैं । हॉकिट ने भाषा के सात अभिलक्षणों का वर्णन किया है । अन्य विद्वानों ने भी अभिलक्षणों का उल्लेख करते हुए आठ या नौ तक संख्या मानी है । मूल रूप से अभिलक्षणों की चर्चा की जाती है -
1.     यादृच्छिकता-  याद्रच्छिकता यादृच्छिकता़’ का अर्थ है - माना हुआ । यहां मानने का अर्थ व्यक्ति द्वारा नहीं वरन् एक विशेष समूह द्वारा मानना है । एक विशेष समुदाय किसी भाव या वस्तु के लिए जो शब्द बना लेता है उसका उस भाव से कोई संबंध नहीं होता । यह समाज की इच्छानुसार माना हुआ संबंध है इसलिए उसी वस्तु के लिए भाषा में दूसरा शब्द प्रयुक्त होता है । भाषा में यह यादृच्छिकता शब्द और व्याकरण दोनों रूपों में मिलती है । अत: यादृच्छिकता भाषा का महत्वपूर्ण अभिलक्षण है । 
2. सृजनात्मकता-  मानवीय भाषा की मूलभूत विशेषता उसकी सृजनात्मकता है। अन्य जीवों में बोलने की प्रक्रिया में परिवर्तन नहीं होता पर मनुष्य शब्दों और वाक्य-विन्यास की सीमित प्रक्रिया से नित्य नए नए प्रयोग करता रहता है । सीमित शब्दों को ही भिन्न भिन्न ढंग से प्रयुक्त कर वह अपने भावों को अभिव्यक्त करता है । यह भाषा की सृजनात्मकता के कारण ही संभव हो सका है । सृजनात्मकता को ही उत्पादकता भी कहा जाता है । 
3.    अनुकरणग्राहता-  मानवेतर प्राणियों की भाषा जन्मजात होती है ।तथा वे उसमें अभिवृद्धि या परिवर्तन नहीं कर सकतें किन्तु मानवीय -भाषा जन्मजात नहीं होती । मनुष्य भाषा को समाज में अनुकरण से धीरे धीरे सीखता है ।अनुकरण ग्राह्य होने के कारण ही मनुष्य एक से अधिक भाषाओं को भी सीख लेता है ।यदि भाषा अनुकरण ग्राह्य न होती तो मनुष्य जन्मजात भाषा तक ही सीमित रहता । 
4.    परिवर्तनशीलता- मानव भाषा परिवर्तनशील होती है । वही शब्द दूसरे युग तक आते आते नया रूप ले लेता है ।पुरानी भाषा में इतने परिवर्तन हो जाते हैं। कि नई भाषा का उदय हो जाता है ।संस्कृत से हिन्दी तक की विकास यात्रा भाषा की परिवर्तनशीलता का उदाहरण है । 
5.    विविक्तता-  मानव भाषा विच्छेद है । उसकी संरचना कई घटकों से होती है ।ध्वनि से शब्द और शब्द से वाक्य विच्छेद घटक होते है। इस प्रकार अनेक इकाइयों का योग होने के कारण मानव भाषा को विविक्त कहा जाता है । 
6.    द्वैतता-  भाषा में किसी वाक्य में दो स्तर होते हैं । प्रथम स्तर पर सार्थक इकाई होती है ।और दूसरे स्तर पर निरर्थक ।कोई  भी वाक्य इन दो स्तरों के योग से बनता है ।अत: इसे द्वैतता कहा जाता है । भाषा में प्रयुक्त सार्थक इकाइयों को रूपिम और निरर्थक इकाइयों को स्वनिम कहा जाता है ।स्वनिम निरर्थक इकाइयां होने पर भी सार्थक इकाइयों का निर्माण करती हैं ।इसके साथ ही ये निरर्थक इकाइयां अर्थ भेदक भी होती हैं ।जैसे क+अ+र+अ में चार स्वनिम है जो निरर्थक इकाइयां हैं पर कर रूपिम सार्थक इकाई  हैं । इसे ही ख+अ+र+अ कर दे तो खर रूपिम बनेगा किंतु कर’ और खर’ में अर्थ भेदक इकाई  रूपिम नहीं स्वनिम क और ख है। इस प्रकार रूपिम अगर अर्थद्योतक इकाई  है तो स्वनिम अर्थ भेदक । इन दो स्तरों से भाषा की रचना होने के कारण भाषा को द्वैत कहा गया है । 
7.   भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन- भाषा में दो पक्ष होते हैं - वक्ता और श्रोता। वार्ता के समय दोनों पक्ष अपनी भूमिका को परिवर्तित करते रहते हैं। वक्ता श्रोता और श्रोता वक्ता होते रहते हैं। इसे ही भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन कहते है । 
8.    अंतरणता- मानव भाषा भविष्य एवं अतीत की सूचना भी दे सकती है ।तथा दूरस्थ देश का भी । इस प्रकार अंतरण की विशेषता केवल मानव भाषा में है । 

9.   असहजवृत्तिकता-  मानवेतर भाषा प्राणी की सहजवृत्ति आहार निद्रा भय से ही संबंद्ध होती है और इसके लिए वे कुछ ध्वनियों का उच्चारण करते हैं । किंतु मानव भाषा सहजवृत्ति नहीं होती है ।वह सहजात वृत्तियों से संबंधित नही होती । भाषा के ये अभिलक्षण मानवीय भाषा को अन्य ध्वनियों या मानवेत्तर प्राणियों से अलग करने में समर्थ हैं ।






खण्ड-अ
किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए - 5×4=20
iz’u 1 भाषा की प्रकृति क्या है ?
iz’u 2 सूक्ष्म शिक्षण से क्या समझते हैं ?
iz’u 3 कहानी कथन विधि क्या है ?
iz’u 4 भाषा शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले श्रव्य साधनों के नाम बताइए ?
iz’u 5 भाषा की विशेषता क्या है ?
iz’u 6 हिंदी शिक्षण का महत्व क्या है ?
खण्ड-ब
किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए - 3×9=27
iz’u 1 अच्छे लेखन की विशेषताएं लिखिए ?
iz’u 2 हिंदी शिक्षण की प्रमुख विधियों का वर्णन कीजिए ?
iz’u 3 गृह कार्य किसे कहते हैं गृह कार्य की उपयोगिता का वर्णन कीजिए ?
iz’u 4  भाषा शिक्षण में प्रयुक्तत होने वाले दृश्य श्रव्य साधनों के नाम लिखिए ?
iz’u 5  हिंदी शिक्षण की पाठ्य सहगामी क्रियाएं क्या है और उनकी उपयोगिता का वर्णन कीजिए ?
खण्ड-स
किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए - 2×14=28
iz’u 1  हिंदी गद्य शिक्षण की प्रमुख विधियों का वर्णन करें ?
iz’u 2 गृह कार्य किसे कहते हैं तथा गृह कार्य की उपयोगिता व गृह कार्य देते समय किन - किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
iz’u 3 हिंदी शिक्षक के गुण एवं अपेक्षाओं का विवरण दीजिए ?
 iz’u 4 मूल्यांकन से क्या अभिप्राय है | मूल्यांकन के प्रकारों का वर्णन कीजिए ?
iz’u 5 अपने पसंद का कोई एक प्रकरण (गद्य, पद्य, व्याकरण,) का हिंदी शिक्षण के लिए पाठ योजना का निर्माण करें ?


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Milan Tomic

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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