भाषा का महत्व एवं उद्देश्य -
भाषा का महत्व –
भाषा
हमारे विचारों के संप्रेषण का महत्त्वपूर्ण माध्यम है,
जिसका जन्म सदियों पूर्व हुआ। मौखिक भाषा तक पहुँचने की प्रक्रिया
अत्यंत लंबी रही है। भाषा के द्वारा ही हम किसी दूसरे व्यकित के भावों, विचारों के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व व पारिवारिक-पृष्भूमि का परिचय
प्राप्त करते हैं । भाषा के महत्त्व को मनुष्य ने लाखों वर्ष पूर्व पहचान कर उसका
निरंतर विकास किया है। जब व्यकित कोई बात मुँह से उच्चरित करता है या उसे लिखकर
अभिव्यक्त करता है तो उसकी भाषा में उसके अंतरंग भावों के साथ-साथ उसका राज्य,
वर्ग, जातीयता और प्रांतीयता भी कौंध्ती है।
इस कौंध् का संबंध् व्यक्ति की मानवीय संवेदना और मानसिकता से भी है। जिस व्यक्ति के
जीवन का उद्देश्य और मानसिकता कम स्तर की होगी, उसकी भाषा के शब्द और उनके मुख्यार्थ, व्यंग्यार्थ
भी क्षुद्र स्तर के होंगे, जबकि उन्नत मानसिक संवेदना वाले
व्यकित की भाषा भी स्वस्थ और संस्कारी होगी।
''जिसका जितना जीवन का सू़क्ष्म प्रयोजन हेागा, उसे
उतनी ही सूक्ष्म, विकसित या संस्कारी भाषा की आवश्यकता होगी ।
अत: भाषा का संस्कारित होना अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वस्थ मन:स्थिति को अनुमत भाषा अभिव्यक्त नहीं कर सकती। उदाहरण के लिए- ''मानवीय
स्वत्व ही कल्पतरू है,
इस वृक्ष की सुगंध्
किसी भी अक्षांश और देशांतर पर
प्रार्थना पदों तथा काव्य-श्लोकों में मिल
जाएगी। - (श्री मेहता-'उत्सवा)
अत:
मनुष्य भाषा का महत्त्व सिर्फ उसकी अभिव्यकित क्षमता या संप्रेषण क्षमता में ही
नहीं है बल्कि व्यक्ति, जाति,संस्क्रति
को प्रतिबिंबित करने की क्षमता भी निहित है। भाषा के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले
कुछ तत्त्व इस प्रकार हैं-
1.संप्रेषण माध्यम - समाज में रहकर संप्रेषण-व्यापार या लोगों से बातचीत के लिए मनुष्य के पास
भाषा ही एकमात्रा माध्यम है। बातचीत के दौरान वक्ता और श्रोता
की भूमिका बदलती है। वक्ता अपने विचारों को बोलकर श्रोता तक संपे्रषित करता है और
श्रोता उन्हें सुनकर ग्रहण करता है। फिर श्रोता बन कर उत्तर देता है और पहले वक्ता श्रोता की भूमिका में आ जाता है। इसी भाषिक आदान-प्रदान से संप्रेषण सम्पन्न होता है।
वक्ता → श्रोता
↑
↓
श्रोता ← वक्ता
इसी
भाषिक संप्रेषण-व्यापार के द्वारा पारिवारिक राष्टीय -अंतराष्ट्रीय और व्यकित का
निजी संप्रेषण बाध-रहित भी संभव हो सकता है, अत: भाषा
का महत्त्व निर्विवाद है।
·
शैक्षणिक महत्त्व- मनुष्य को सभ्य व पूर्ण बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है और सभी प्रकार की
शिक्षा का माध्यम भाषा ही है। साहित्य, विज्ञान,
अर्थशास्त्र सभ्यता आदि सभी क्षेत्राों में
प्रारमिभक से लेकर अधिकतम शिक्षा तकसभी स्तरों पर भाषा का महत्त्व स्पष् है। जीवन
के सभी क्षेत्राों में किताबी शिक्षा हो या व्यावहारिक शिक्षा, वह भाषा के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।
·
दार्शनिक-चिंतन- विश्व के हितों को ध्यान में रखते हुए चिंतन-मनन
गहराई से किया जाता है, वह दार्शनिक चिंतन कहलाता है।
जातीय समषि का सार इसी चिंतन या दर्शन में होता है, जो एक
पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को भाषाद्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त होता है। भाषा का यह
अदृश्य दार्शनिक पांडित्य और विद्वत्ता भाषा के महत्त्व को विशिष् बना देता है।
·
नए आविष्कारों-शोधों की
अभिव्यकित- विश्व में विज्ञान से
लेकर भाषा-विज्ञान तक सभी क्षेत्राों में नए-नए आविष्कार व शोध् होते रहते हैं।
इनमें अध्ययन और शोध् लेखन के लिए नए-नए शब्द या पारिभाषिक
शब्द रचे जातेहैं। इन शब्दों से संपन्न भाषा के द्वारा
सामाजिक-वैज्ञानिक विकास की अभिव्यकित होती है।
·
सर्जनात्मकता- भाषा का महत्त्व तथ्यात्मक व सूचनात्मक प्रयोगों के अतिरिक्त सर्जनात्मक व
रसात्मक प्रयोगों में भी देखा जा सकता है। इसका संबंध् लेखक के आंतर-पीढि़ीगत जातीय
(अपनी जातिविशेष से संबद्ध होने का भाव) संस्कारों से भी होता है। अलग-अलग भौगोलिक
प्रान्तों से पीढि़यों से जुड़े लेखकों, कवियों का लहजा भी
विशिष्ट लक्षणों से संपन्न व विशिष्ट होता है। सर्जनात्मक प्रयोगों में भाषा माèयम या साध्न मात्रा नहीं रहती बलिक उनका आधार और अभिन्न रूप
बन जाती है। भाषा के बिना लिखित साहित्य का असितत्व ही संभव नहीं है। साहित्यकार
की अपनी एक विशेष दुनिया है और उसी तक वह बेपिफक्र सीमित होते हैं। सदियों से
साहित्यकार प्रचलित भाषा की भीतरी बुनावट की सोद्देस्यता को
नया आयाम देकर निजी भावों-विचारों की अभिव्यकित करते आए हैं। वेद, पुराण, उपनिषद से लेकर, तुलसीदास,
प्रसाद, श्री नरेश मेहता आदि सभी का साहित्य
भाषा के कारण ही, इतने वषो± तक
सुरक्षित रहकर अब तक हमें अध्ययन के लिए प्रेरित करता है। भाषा का महत्त्व उसकी रसात्मक, संपे्रषणीयता या
रसास्वादन में भी है। साहित्यकार ऐसी भाषा को आधर बनाते हैं जो उनके कथ्य को पाठकों श्रोताओं की संवेदनाओं के साथ एकाकार करने में समर्थ हों। भाषा
के द्वारा ही रचना कार और पाठक का भाव संप्रेषण संभव है। इस प्रकार भाषा के माèयम से ही मनुष्य के सौंदर्य बोध् औरसंवेदनाओं के संस्कार परिष्कार में
साहित्य महत्त्वपूर्ण दायित्व निभाता है। इसके अतिरिक्त उसका और कोई उद्देश्य , कार्य नहीं है।
·
शिक्षित समाज- भाषा एक सामाजिक संपत्ति भी है, जिससे शिक्षित समाज
का भी विकास-नवनिर्माण संभवहै। भिन्न-भिन्न प्रकार की भौगोलिक, सांस्क्रतिक और व्यवहारपरक विभिन्नता के किसी भाषा प्रयोग का सीमित विशिष्ट भिन्न समाज बनता है। जिसमें उनकी
जातियों की जातीयता और प्रांतीयता सुरक्षित रहती है।
·
संस्क्रति-सभ्यता का
संरक्षण- सांस्क्रतिक ध्रोहर या
संस्क्रति के प्रान्तीय पीढ़ी-दर-पीढ़ी सभी तत्त्व भाषामें संरक्षित होते हैं। किसी
भी सांस्क्रतिक वर्ग की ललित और उपयोगी कलाओं का भंडार भाषा के माध्यम से ही सिथरऔर सुरक्षित रहता है। आज भी ऐसी अनेक प्राचीन
संस्क्रति-सभ्यता संबंधी पांडुलिपियाँ विधमान हैं, जिनके
आधरपर अनुसंधन की संभावनाएं हैं। वैदिककालीन या मèयकलीन
संस्क्रति का संपूर्ण वांमय भाषा के माध्यम से हमारे समक्ष उपसिथत है और आने वाले समय में भी चिरस्थाई रहेगा।
इनके अतिरिक्त भी भाषा के
महत्त्व और उपयोगिता के असंख्य आयाम हैं। वास्तव में जीवन और समाज का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जहाँ भाषा का उपयोग और आवश्यकता न हो। यहाँ तक कि भाषा का ऐतिहासिक, तुलनात्मक,
आदि अध्ययन भी भाषा द्वारा ही संभव है। यह अध्ययन सभ्यता के निर्माण के विभिन्न सोपानों को स्पष्
करने में सहायक सिद्ध होता है
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